छठा अध्याय
(ध्यान-योग- ६.३७-४७)
अर्जुन
होकर श्रद्धावान भी जो जन,
चंचल मन से विचलित होता.
तो वह किस गति को पाता है
योग सिद्धि जब प्राप्त न होता. (३७)
भ्रष्ट कर्म, ज्ञान दोनों ही पथ से
क्या वह नहीं निराश्रय होता?
क्या ब्रह्ममार्ग में मोहित साधक
छिन्न भिन्न बादल सम होता? (३८)
कृष्ण! नहीं कोई समर्थ है
जो यह संशय दूर कर सके.
सिर्फ आपके और न दूजा,
जो यह संशय नष्ट कर सके. (३९)
श्री भगवान
लोक परलोक दोनों में अर्जुन,
उसका नाश नहीं है होता.
जो जन शुभ कर्मों को करता,
दुर्गति प्राप्त कभी न होता. (४०)
लोक पुण्य आत्माओं का पाकर,
योग भ्रष्ट वहाँ रहता है.
पुनः पवित्र धनिकों के घर में
वर्षों बाद जन्म पाता है. (४१)
गुणी योगनिष्ठों के घर में,
अथवा जन्म प्राप्त करता है.
दुर्लभ अत्यंत लोक में होता,
ऐसा जन्म प्राप्त करता है. (४२)
पूर्व जन्म में अर्जित बुद्धि
पुनः प्राप्त वहां है करता.
पहले से ज्यादा प्रयत्न से
मोक्ष प्राप्ति में है लगता. (४३)
पूर्वाभ्यास योग के कारण,
योगसाधना आकर्षित करता.
समत्व योग का जिज्ञासु वह,
शब्द ब्रह्म को पार है करता. (४४)
यत्नपूर्व कोशिश कर योगी,
पाप रहित, शुद्ध हो जाता.
जन्मान्तरों में सिद्धि पाकर,
अंत परम गति को है पाता. (४५)
श्रेष्ठ है योगी तप साधक से,
ज्ञानी से भी श्रेष्ठ है योगी.
श्रेष्ठ अग्निहोत्री से भी वह,
अर्जुन तुम बन जाओ योगी. (४६)
ऐसे समस्त योगियों में भी जो
अंतर्मन से आसक्त है मुझ में.
श्रद्धायुक्त जो मुझको भजता,
सब से श्रेष्ठ है वह मेरे मत में. (४७)
.......क्रमशः
*****छठा अध्याय समाप्त*****
कैलाश शर्मा
(ध्यान-योग- ६.३७-४७)
अर्जुन
होकर श्रद्धावान भी जो जन,
चंचल मन से विचलित होता.
तो वह किस गति को पाता है
योग सिद्धि जब प्राप्त न होता. (३७)
भ्रष्ट कर्म, ज्ञान दोनों ही पथ से
क्या वह नहीं निराश्रय होता?
क्या ब्रह्ममार्ग में मोहित साधक
छिन्न भिन्न बादल सम होता? (३८)
कृष्ण! नहीं कोई समर्थ है
जो यह संशय दूर कर सके.
सिर्फ आपके और न दूजा,
जो यह संशय नष्ट कर सके. (३९)
श्री भगवान
लोक परलोक दोनों में अर्जुन,
उसका नाश नहीं है होता.
जो जन शुभ कर्मों को करता,
दुर्गति प्राप्त कभी न होता. (४०)
लोक पुण्य आत्माओं का पाकर,
योग भ्रष्ट वहाँ रहता है.
पुनः पवित्र धनिकों के घर में
वर्षों बाद जन्म पाता है. (४१)
गुणी योगनिष्ठों के घर में,
अथवा जन्म प्राप्त करता है.
दुर्लभ अत्यंत लोक में होता,
ऐसा जन्म प्राप्त करता है. (४२)
पूर्व जन्म में अर्जित बुद्धि
पुनः प्राप्त वहां है करता.
पहले से ज्यादा प्रयत्न से
मोक्ष प्राप्ति में है लगता. (४३)
पूर्वाभ्यास योग के कारण,
योगसाधना आकर्षित करता.
समत्व योग का जिज्ञासु वह,
शब्द ब्रह्म को पार है करता. (४४)
यत्नपूर्व कोशिश कर योगी,
पाप रहित, शुद्ध हो जाता.
जन्मान्तरों में सिद्धि पाकर,
अंत परम गति को है पाता. (४५)
श्रेष्ठ है योगी तप साधक से,
ज्ञानी से भी श्रेष्ठ है योगी.
श्रेष्ठ अग्निहोत्री से भी वह,
अर्जुन तुम बन जाओ योगी. (४६)
ऐसे समस्त योगियों में भी जो
अंतर्मन से आसक्त है मुझ में.
श्रद्धायुक्त जो मुझको भजता,
सब से श्रेष्ठ है वह मेरे मत में. (४७)
.......क्रमशः
*****छठा अध्याय समाप्त*****
कैलाश शर्मा
धर्म कर्म का ज्ञान है गीता का उपदेश
ReplyDeleteमिलती इससे मुक्ति है होता नही क्लेश,,,,
RECENT POST ...: जिला अनुपपुर अपना,,,
जय श्री कृष्ण!
ReplyDeleteबढिया पोस्ट।
ReplyDeleteछिन्न भिन्न बादल सा फिरता मन के पीछे भाग रहा जो।
ReplyDeleteHar baar kuchh naya kahneke liye mere paas alfaaz nahee hote!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर ..हर बार नया कुछ सिखने को मिलता है..आभार
ReplyDelete
ReplyDeleteभ्रष्ट कर्म, ज्ञान दोनों ही पथ से
क्या वह नहीं निराश्रय होता?
क्या ब्रह्ममार्ग में मोहित साधक
छिन्न भिन्न बादल सम होता? (३८)
.इस कथात्मक काव्य प्रस्तुति का ज़वाब नहीं .. ..कृपया यहाँ भी पधारें -
ram ram bhai
सोमवार, 20 अगस्त 2012
सर्दी -जुकाम ,फ्ल्यू से बचाव के लिए भी काइरोप्रेक्टिक
आनन्द मय !
ReplyDeleteबहुत सुन्दर ..शब्दों में ज्ञान का भंडार है... आभार
ReplyDeletesaral shabdon me geeta ka gyan pradan kar rahen hain aap .aabhar
ReplyDeleteबहुत ही अच्छा गीता का पद्यानुवाद |
ReplyDeleteप्रभावी प्रस्तुति ||
ReplyDeleteसुंदर रचना.
ReplyDeleteउत्कृष्ट प्रस्तुति ... आभार
ReplyDeleteaasaan shabdon mein geeta samajha rahe hain aap...aabhaar!!
ReplyDeleteपूर्वाभ्यास योग के कारण,
ReplyDeleteयोगसाधना आकर्षित करता.
समत्व योग का जिज्ञासु वह,
शब्द ब्रह्म को पार है करता.
योग की अपार महिमा को बताती सुंदर पोस्ट!