नौवां अध्याय
(राजविद्याराजगुह्य-योग-९.१-१०)
श्री भगवान
अर्जुन ईर्ष्या रहित तुम्हें मैं
विज्ञान युक्त ज्ञान बतलाता.
जान परम गुप्त रहस्य को
मुक्त शीघ्र अशुभ से हो जाता. (९.१)
ज्ञान ये विद्याओं का राजा,
यह रहस्य अनुभव से आता.
परम पवित्र, धर्ममय है यह,
अविनाशी व सुख का दाता. (९.२)
जिनकी नहीं इस धर्म में श्रद्धा
वह जन मुझे नहीं है पाता.
जन्म मरण में भ्रमण है करने
बारबार इस जग में आता. (९.३)
मेरा ही अव्यक्त स्वरूप है
सर्व जगत व्याप्त है रहता.
सब प्राणी मुझमें स्थित हैं
पर मैं उनमें नहीं हूँ रहता. (९.४)
मेरे दिव्य रहस्य को देखो
ये प्राणी न स्थित मुझमें.
मैं ही जनक और पालक हूँ,
नहीं हूँ पर स्थित मैं उनमें. (९.५)
जैसे वायु गगन में रहकर
भी महान और सर्वगामी है.
वैसे ही समझो तुम अर्जुन
मुझमें स्थित सब प्राणी हैं. (९.६)
सब प्राणी हैं प्रलय काल में
लीन मेरी ही प्रकृति में होते.
सृष्टि आदिकाल में अर्जुन
मेरे द्वारा ही सृजन हैं होते. (९.७)
अपनी प्रकृति को स्थिर करके
प्रलय काल विलीन हैं जन को.
रचता बार बार भिन्न रूपों में
कर्म आदि से परवश जन को. (९.८)
सृष्टि आदि का कर्म मुझे है
नहीं कर्म बंधन में डालता.
इन कर्मों में अनासक्त मैं
उदासीन सा स्थित रहता. (९.९)
मेरे निर्देशन में हे अर्जुन!
प्रकृति सृजन में रत रहता.
सर्व चराचर जगत का ऐसे
संसार चक्र घूमता रहता. (९.१०)
.....क्रमशः
कैलाश शर्मा
जैसे वायु गगन में रहकर
ReplyDeleteभी महान और सर्वगामी है.
वैसे ही समझो तुम अर्जुन
मुझमें स्थित सब प्राणी हैं.
बेहद सशक्त लेखन आपका ...
आभार इस प्रस्तुति के लिए
namaskaar kailash ji ............bauut sundar sarthak post , hamesha hi acchi lagi iski kadiyan
Deleteजैसे वायु गगन में रहकर
ReplyDeleteभी महान और सर्वगामी है.
वैसे ही समझो तुम अर्जुन
मुझमें स्थित सब प्राणी हैं.
बहुत सुन्दर सृजन हो रहा है
सृष्टि आदि का कर्म मुझे है
ReplyDeleteनहीं कर्म बंधन में डालता.
इन कर्मों में अनासक्त मैं
उदासीन सा स्थित रहता.
बहुत सुंदर ज्ञान..आभार !
बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
ReplyDeleteआप सार्थक स्रजन कर रहे हैं!
Beechh kee chand kadiyan nahee padh payee hun....sehat theek hote hee padhungee.
ReplyDeleteसुन्दर अनुवाद |आभार सर
ReplyDeleteसार्थक सृजन... बहुत सुन्दर प्रस्तुति! आभार
ReplyDeleteमैं निर्लिप्त..बहुत सुन्दर भावानुवाद।
ReplyDeleteमेरा ही अव्यक्त स्वरूप है
ReplyDeleteसर्व जगत व्याप्त है रहता.
सब प्राणी मुझमें स्थित हैं
पर मैं उनमें नहीं हूँ रहता. (९.४)
क्या कहने हैं इस गीता सार तत्व लिए अनुवाद का .
सृष्टि आदि का कर्म मुझे है
ReplyDeleteनहीं कर्म बंधन में डालता.
इन कर्मों में अनासक्त मैं
उदासीन सा स्थित रहता.
सुंदर भावानुवाद...........
आनन्द दायी भावानुवाद !
ReplyDeleteज्ञान की बात गीत में हो तो सामान्य बुद्धि के भी ह्रदय के अंतरस्थल तक पहुँचती है !
ReplyDeleteआभार !
सुन्दर अनुवाद ..........
ReplyDeleteसब प्राणी हैं प्रलय काल में
लीन मेरी ही प्रकृति में होते.
सृष्टि आदिकाल में अर्जुन
मेरे द्वारा ही सृजन हैं होते.
बहुत अच्छा लेखन और शब्द चयन |
ReplyDeleteआशा
सार्थक सुन्दर अनुवाद,,,,,,
ReplyDeleteRECECNT POST: हम देख न सके,,,
बहुत ख़ूब! वाह!
ReplyDeleteकृपया इसे भी देखें-
नाहक़ ही प्यार आया
बहुत ख़ूब! वाह!
ReplyDeleteकृपया इसे भी देखें-
नाहक़ ही प्यार आया
उत्कृष्ट प्रस्तुति.
ReplyDeleteKailash ji..In simple magical words you have written it beautifully...Long live..GOD LOVE U
ReplyDeleteआपकी लेखनी में जादू है कैलाश जी.
ReplyDeleteअति सरलतम शब्दों में आपने गुह्यतम ज्ञान
की अनुपम काव्यात्मक प्रस्तुति की है.
हार्दिक आभार जी.
समय मिलने पर मेरे ब्लॉग पर आईएगा.
ब्रेस्ट कैंसर के प्रति जागरूकता और चेतना जगाने के लिए.
ReplyDeleteइसे पुस्तक रूप में लाइए भाई जी !
ReplyDeleteशुभकामनाएं आपको !