Monday, October 01, 2012

क्षितिज की ओर....

                               (On World Elders day) 

सोचा नहीं था ज़िंदगी में 
कभी यह दिन भी आयेगा,
जिन्हें समझा था अपना, 
वह पराया नज़र आयेगा.

नहीं था छोडता उंगली 
जो कभी खोने के डर से, 
वह इस उम्र में हमको 
वृद्धाश्रम छोड़ जायेगा.

है नादान कितना दिल ये,
अब भी आस यह रखता,
चुरा कर आँख जो निकला, 
पलट कर फ़िर वो आयेगा.

लालच की धूल ढँक देती 
ज़िंदगी की यह सच्चाई,
जिस दौर से हैं हम गुज़रे  
न कोई उससे बच पायेगा.

अब  क्यों करें अफ़सोस, 
गुज़र गयी ज़िंदगी जैसे भी,
नहीं अब यह आस भी बाकी, 
वह अंतिम समय आयेगा.

कैलाश शर्मा 

26 comments:

  1. सर वाह कितनी सिद्दत से लिखी है आपने ये कविता वाह क्या कहने बेहतरीन सर

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  2. बच्चों के संग तिरस्कृत टूटन झेलने की बजाय वृद्धाश्रम में शांत एकान्तिक पल अच्छे हैं

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  3. उत्कृष्ट प्रस्तुति |
    आभार आपका |

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  4. जिंदगी की सच्चाई से रूबरू कराती पंक्तियां , बहुत ही सरल सुंदर और भावपूर्ण रचना ।

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  5. लालच की धूल ढँक देती
    ज़िंदगी की यह सच्चाई,
    जिस दौर से हैं हम गुज़रे
    न कोई उससे बच पायेगा.
    सुंदर रचना.

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  6. आज का कटु सत्य कहती प्रभावी रचना..

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  7. लालच की धूल ढँक देती
    ज़िंदगी की यह सच्चाई,
    जिस दौर से हैं हम गुज़रे
    न कोई उससे बच पायेगा.
    सिलसिला तो चलना ही है जो दिया है वही पाना होगा, इसलिए आज को सुधारना होगा, आखिर क्यों पड़ती है इन वृद्धाश्रम की जरुरत? गहन भाव

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  8. रश्मि दी की बातों से सहमत हूँ...दुखद तो है पर तिरस्कृत जीवन से अच्छा है|

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  9. बहुत ही सरल सुंदर और भावपूर्ण रचना ।

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  10. तपता सूरज समझ रहा है,
    एक दिन वह भी ढल जायेगा ।

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  11. काश बच्चे बड़ों की अहमियत समझ पाते...तो शायद वृद्धाश्रमों की भरमार न होती .....दुखी कर गयी रचना ....लेकिन सच तो फिर भी है

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  12. आज के समय का सच...... बड़े सटीक तरीके से बयां किया ....

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  13. आज के दौर की कटु सत्य कहती सार्थक सटीक रचना,,,,,

    RECECNT POST: हम देख न सके,,,

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  14. किसी ने सच ही कहा है कविता में अभिव्यक्ति के लिये बहुत समृद्ध जीवनानुभव होना जरुरी है ...यथा इन पंक्तियों से...
    है नादान कितना दिल ये,
    अब भी आस यह रखता,
    चुरा कर आँख जो निकला,
    पलट कर फ़िर वो आयेगा।

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  15. सुन्दर कविता यथार्थ से ओतप्रोत |

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  16. अब क्यों करें अफ़सोस,
    गुज़र गयी ज़िंदगी जैसे भी,
    नहीं अब यह आस भी बाकी,
    वह अंतिम समय आयेगा..........यही हासिल है पूत पालने का .पूत पालना और ऊत पालना एक समान .

    पूत कपूत सुने हैं लेकिन माता हुईं सुमाता .....लेकिन माता बनने का अवसर गर्भ में ही कन्या से छीन लिया जाता है .फिर भी आँख नहीं खुलतीं पुत्र केन्द्रित समाज की .मत मार दी है आदमी की पिंड दान के लालच ने कर्म कांडी चिंतन ने .
    बहुत गहरे घाव करने वाली सीधी सपाट रचना .

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  17. जिंदगी की कठिन सच्चाई तो यही है !

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  18. सुंदर भाव !
    कहीं कटु है बहुत
    पर कहीं बहुत
    मीठा भी होता है
    किसी किसी का
    बुढा़पा सपने
    जैसा भी होता है
    वैसे जो जैसा
    बोता है
    हर बार तो नहीं
    फिर भी
    ज्यादातर पेड़
    वैसा ही
    पैदा होता है !

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  19. अति सुन्दर बधाई
    मेरे ब्लॉग पे पधारने के लिए आपको धन्यवाद

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  20. अब क्यों करें अफ़सोस,
    गुज़र गयी ज़िंदगी जैसे भी,
    नहीं अब यह आस भी बाकी,
    वह अंतिम समय आयेगा.

    एक कडवी हकी्कत को बयाँ करती बहुत ही संवेदनशील रचना ।

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  21. है नादान कितना दिल ये,
    अब भी आस यह रखता,
    चुरा कर आँख जो निकला,
    पलट कर फ़िर वो आयेगा.

    आज के समय में बच्चों से कोई उम्मीद ही नहीं रखनी चाहिए .... मार्मिक प्रस्तुति

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  22. उफ़ जिंदगी में दर्द देने वाला एक कटु सत्य

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  23. nuclear pariwar ke mata-pita ka athaah dard sashakt shadon me samaitne ki koshish. prabhavi abhivyakti.

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  24. अब क्यों करें अफ़सोस,
    गुज़र गयी ज़िंदगी जैसे भी,
    नहीं अब यह आस भी बाकी,
    वह अंतिम समय आयेगा.

    ओह ! बहुत ही सुन्दर ढंग से बयां सच.

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  25. This comment has been removed by the author.

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