सोचा नहीं था ज़िंदगी में
कभी यह दिन भी आयेगा,
जिन्हें समझा था अपना,
वह पराया नज़र आयेगा.
नहीं था छोडता उंगली
जो कभी खोने के डर से,
वह इस उम्र में हमको
वृद्धाश्रम छोड़ जायेगा.
है नादान कितना दिल ये,
अब भी आस यह रखता,
चुरा कर आँख जो निकला,
पलट कर फ़िर वो आयेगा.
लालच की धूल ढँक देती
ज़िंदगी की यह सच्चाई,
जिस दौर से हैं हम गुज़रे
न कोई उससे बच पायेगा.
अब क्यों करें अफ़सोस,
गुज़र गयी ज़िंदगी जैसे भी,
नहीं अब यह आस भी बाकी,
वह अंतिम समय आयेगा.
कैलाश शर्मा
सर वाह कितनी सिद्दत से लिखी है आपने ये कविता वाह क्या कहने बेहतरीन सर
ReplyDeleteबच्चों के संग तिरस्कृत टूटन झेलने की बजाय वृद्धाश्रम में शांत एकान्तिक पल अच्छे हैं
ReplyDeleteउत्कृष्ट प्रस्तुति |
ReplyDeleteआभार आपका |
जिंदगी की सच्चाई से रूबरू कराती पंक्तियां , बहुत ही सरल सुंदर और भावपूर्ण रचना ।
ReplyDeleteलालच की धूल ढँक देती
ReplyDeleteज़िंदगी की यह सच्चाई,
जिस दौर से हैं हम गुज़रे
न कोई उससे बच पायेगा.
सुंदर रचना.
आज का कटु सत्य कहती प्रभावी रचना..
ReplyDeleteलालच की धूल ढँक देती
ReplyDeleteज़िंदगी की यह सच्चाई,
जिस दौर से हैं हम गुज़रे
न कोई उससे बच पायेगा.
सिलसिला तो चलना ही है जो दिया है वही पाना होगा, इसलिए आज को सुधारना होगा, आखिर क्यों पड़ती है इन वृद्धाश्रम की जरुरत? गहन भाव
रश्मि दी की बातों से सहमत हूँ...दुखद तो है पर तिरस्कृत जीवन से अच्छा है|
ReplyDeleteबहुत ही सरल सुंदर और भावपूर्ण रचना ।
ReplyDeleteतपता सूरज समझ रहा है,
ReplyDeleteएक दिन वह भी ढल जायेगा ।
काश बच्चे बड़ों की अहमियत समझ पाते...तो शायद वृद्धाश्रमों की भरमार न होती .....दुखी कर गयी रचना ....लेकिन सच तो फिर भी है
ReplyDeleteआज के समय का सच...... बड़े सटीक तरीके से बयां किया ....
ReplyDeleteआज के दौर की कटु सत्य कहती सार्थक सटीक रचना,,,,,
ReplyDeleteRECECNT POST: हम देख न सके,,,
किसी ने सच ही कहा है कविता में अभिव्यक्ति के लिये बहुत समृद्ध जीवनानुभव होना जरुरी है ...यथा इन पंक्तियों से...
ReplyDeleteहै नादान कितना दिल ये,
अब भी आस यह रखता,
चुरा कर आँख जो निकला,
पलट कर फ़िर वो आयेगा।
सुन्दर कविता यथार्थ से ओतप्रोत |
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ReplyDeleteअब क्यों करें अफ़सोस,
गुज़र गयी ज़िंदगी जैसे भी,
नहीं अब यह आस भी बाकी,
वह अंतिम समय आयेगा..........यही हासिल है पूत पालने का .पूत पालना और ऊत पालना एक समान .
पूत कपूत सुने हैं लेकिन माता हुईं सुमाता .....लेकिन माता बनने का अवसर गर्भ में ही कन्या से छीन लिया जाता है .फिर भी आँख नहीं खुलतीं पुत्र केन्द्रित समाज की .मत मार दी है आदमी की पिंड दान के लालच ने कर्म कांडी चिंतन ने .
बहुत गहरे घाव करने वाली सीधी सपाट रचना .
जिंदगी की कठिन सच्चाई तो यही है !
ReplyDeleteसुंदर भाव !
ReplyDeleteकहीं कटु है बहुत
पर कहीं बहुत
मीठा भी होता है
किसी किसी का
बुढा़पा सपने
जैसा भी होता है
वैसे जो जैसा
बोता है
हर बार तो नहीं
फिर भी
ज्यादातर पेड़
वैसा ही
पैदा होता है !
अति सुन्दर बधाई
ReplyDeleteमेरे ब्लॉग पे पधारने के लिए आपको धन्यवाद
अब क्यों करें अफ़सोस,
ReplyDeleteगुज़र गयी ज़िंदगी जैसे भी,
नहीं अब यह आस भी बाकी,
वह अंतिम समय आयेगा.
एक कडवी हकी्कत को बयाँ करती बहुत ही संवेदनशील रचना ।
है नादान कितना दिल ये,
ReplyDeleteअब भी आस यह रखता,
चुरा कर आँख जो निकला,
पलट कर फ़िर वो आयेगा.
आज के समय में बच्चों से कोई उम्मीद ही नहीं रखनी चाहिए .... मार्मिक प्रस्तुति
उफ़ जिंदगी में दर्द देने वाला एक कटु सत्य
ReplyDeletenuclear pariwar ke mata-pita ka athaah dard sashakt shadon me samaitne ki koshish. prabhavi abhivyakti.
ReplyDeleteअब क्यों करें अफ़सोस,
ReplyDeleteगुज़र गयी ज़िंदगी जैसे भी,
नहीं अब यह आस भी बाकी,
वह अंतिम समय आयेगा.
ओह ! बहुत ही सुन्दर ढंग से बयां सच.
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ReplyDeleteहृदयस्पर्षी।
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