दसवां अध्याय
(विभूति-योग -१०.१-७)
श्री भगवान
फिर भी सुनो परम वचन तुम
सुन कर प्रिय तुमको है लगता.
भक्त तुम्हारे जैसे के हित को
पार्थ मैं तुमको वचन यह कहता. (१०.१)
मेरा प्रादुर्भाव हैं जानें
न ही देव या महर्षि गण.
देव और महर्षियों का
मैं ही होता हूँ सब कारण. (१०.२)
मुझे आदि अजन्मा माने,
परमेश्वर लोकों का जानता.
पूर्ण मोह रहित हो जन में,
मुक्त है पापों से हो जाता. (१०.३)
क्षमा, सत्य, इन्द्रिय पर संयम,
बुद्धि, ज्ञान, सम्मोह हीनता.
सुख और दुःख, जन्म व मृत्यु,
भय और अभय, अहिंसा,समता. (१०.४)
यश अपयश तप दान संतुष्टि
अलग अलग ये भाव हैं होते.
भाव ये सब प्राणी में अर्जुन
मेरे द्वारा ही उत्पन्न हैं होते. (१०.५)
सप्तर्षि व चार पूर्व मनु भी
जिनसे सृजन हुआ लोकों का.
वे सब मानस भाव हैं मेरे
मुझमें स्थित भाव था उनका. (१०.६)
मेरी इस विभूति व योग का
जो जन तत्व समझ है पाता.
इसमें नहीं है संशय अर्जुन
अविचल योगयुक्त हो जाता. (१०.७)
......... क्रमशः
कैलाश शर्मा
bahut hi sundar ayr laybaddh prastuti,sundar
ReplyDeleteबहुत सुन्दर संदेशप्रद भावानुवाद
ReplyDeleteमेरी इस विभूति व योग का
ReplyDeleteजो जन तत्व समझ है पाता.
इसमें नहीं है संशय अर्जुन
अविचल योगयुक्त हो जाता
परमात्मा अगाध है..आभार इस सुंदर ज्ञान के लिए...
बहुत सुन्दर भावानुवाद,,,
ReplyDeleterecent post...: अपने साये में जीने दो.
कैलाश जी ... बहुत ही सरल शब्दों में इतना गूढ़ रहस्य समझाया है आपने ..आभार
ReplyDeleteSARAL V PRANJAL BHASHA SHAILI ME PRASTUT AAPKI POST PRASHNIY HAI .AABHAR
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रविष्टि वाह!
ReplyDeleteइसे भी अवश्य देखें!
चर्चामंच पर एक पोस्ट का लिंक देने से कुछ फ़िरकापरस्तों नें समस्त चर्चाकारों के ऊपर मूढमति और न जाने क्या क्या होने का आरोप लगाकर वह लिंक हटवा दिया तथा अतिनिम्न कोटि की टिप्पणियों से नवाज़ा आदरणीय ग़ाफ़िल जी को हम उस आलेख का लिंक तथा उन तथाकथित हिन्दूवादियों की टिप्पणयों यहां पोस्ट कर रहे हैं आप सभी से अपेक्षा है कि उस लिंक को भी पढ़ें जिस पर इन्होंने विवाद पैदा किया और इनकी प्रतिक्रियायें भी पढ़ें फिर अपनी ईमानदार प्रतिक्रिया दें कि कौन क्या है? सादर -रविकर
राणा तू इसकी रक्षा कर // यह सिंहासन अभिमानी है
ye saral subodh bhaw v bhasha me
ReplyDeleteantartam ko chhoo gayi geeta teri.......
अनुपम अनुभूति..
ReplyDeleteबहुत अच्छा काम कर रहे हैं आप
ReplyDeleteयश अपयश तप दान संतुष्टि
ReplyDeleteअलग अलग ये भाव हैं होते.
भाव ये सब प्राणी में अर्जुन
मेरे द्वारा ही उत्पन्न हैं होते. (१०.५)
अच्छा लग रहा है इस श्रृंखला को पढना
इस अध्याय का पद्यानुवाद भी सुंदर |
ReplyDeleteयश अपयश तप दान संतुष्टि
ReplyDeleteअलग अलग ये भाव हैं होते.
भाव ये सब प्राणी में अर्जुन
मेरे द्वारा ही उत्पन्न हैं होते
बहुत ही बढिया।
बहुत सुंदर ...
ReplyDeleteBeautiful :)
ReplyDeleteयश अपयश तप दान संतुष्टि
ReplyDeleteअलग अलग ये भाव हैं होते.
भाव ये सब प्राणी में अर्जुन
मेरे द्वारा ही उत्पन्न हैं होते.
सजीव संवाद पार्थ के साथ कृष्ण का .
परम आनद ... कृष्ण के संवाद ... अमृत सामान ...
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