नौवां अध्याय
(राजविद्याराजगुह्य-योग-९.२९-३४)
नहीं प्रेम या द्वेष किसी से
मैं समभाव हूँ सब में रखता.
वे मुझमें हैं और मैं उन में
भक्तिपूर्वक मुझे जो भजता. (९.२९)
घोर दुराचारी व्यक्ति भी
अनन्य भाव से मुझे पूजता.
उसे श्रेष्ठ ही समझो अर्जुन
दृढनिश्चय है वह जन रखता. (९.३०)
शीघ्र धर्म आत्मा वह होकर
परम शान्ति प्राप्त है होता.
निश्चय रूप से जानो अर्जुन,
भक्त मेरा न नष्ट है होता. (९.३१)
चाहे स्त्री, वैश्य, शूद्र हों,
निम्न कुलों में जन्म हैं पाया.
जो मेरा आश्रय लेते हैं,
उसने परम गति को है पाया. (९.३२)
राजर्षि, ब्राह्मणों का क्या कहना
पुण्य कर्म से वे पाते हैं मुझको.
अनित्य, दुखमय संसार में आकर
अतः भजो अर्जुन तुम मुझको. (९.३३)
स्थिर मन से भक्त बनो तुम,
मेरी पूजा करो, मुझे नमन कर.
कर लोगे तुम प्राप्त मुझे ही
मुझमें युक्त एकाग्र चित्त कर. (९.३४)
**नौवां अध्याय समाप्त**
.....क्रमशः
कैलाश शर्मा
नहीं प्रेम या द्वेष किसी से
ReplyDeleteमैं समभाव हूँ सब में रखता.
वे मुझमें हैं और मैं उन में
भक्तिपूर्वक मुझे जो भजता
यही तो उनकी परम दयालुता है।
स्थिर मन से भक्त बनो तुम,
ReplyDeleteमेरी पूजा करो, मुझे नमन कर.
कर लोगे तुम प्राप्त मुझे ही
मुझमें युक्त एकाग्र चित्त कर.
बहुत ही सुन्दर पंक्तियां
सादर
bahut hi sundar pryas bilkul sangrhneey kriti ....sadar abhar Kailash ji
ReplyDeletebahut sundar नहीं प्रेम या द्वेष किसी से
ReplyDeleteमैं समभाव हूँ सब में रखता.
वे मुझमें हैं और मैं उन में
भक्तिपूर्वक मुझे जो भजता. (९.२९)
जय श्री कृष्ण |
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति ||
Deewalee kee anek shubh kamnayen!
ReplyDeleteनहीं प्रेम या द्वेष किसी से
ReplyDeleteमैं समभाव हूँ सब में रखता.
वे मुझमें हैं और मैं उन में
भक्तिपूर्वक मुझे जो भजता.
यही तो उनकी कृपा है...
शुभकामनाएँ...
:-)
ReplyDeleteनहीं प्रेम या द्वेष किसी से
मैं समभाव हूँ सब में रखता.
वे मुझमें हैं और मैं उन में
भक्तिपूर्वक मुझे जो भजता.
sundar bhaavaanuvaad geyaatmaktaa lie .
बहुत अच्छा शब्द चयन और जानकारी |
ReplyDeleteआशा
बहुत ही उम्दा पद्यानुवाद |आभार सर
ReplyDeleteबहुत अद्भुत अहसास...सुन्दर प्रस्तुति बहुत ही अच्छा लिखा आपने .बहुत ही सुन्दर रचना.बहुत बधाई आपको
ReplyDeletealaukik
ReplyDeleteसमत्वं योग उच्यते
ReplyDelete
ReplyDeleteनहीं प्रेम या द्वेष किसी से
मैं समभाव हूँ सब में रखता.
वे मुझमें हैं और मैं उन में
भक्तिपूर्वक मुझे जो भजता.
घोर दुराचारी व्यक्ति भी
अनन्य भाव से मुझे पूजता.
उसे श्रेष्ठ ही समझो अर्जुन
दृढनिश्चय है वह जन रखता
ज्ञान की बातें है, बहुत सीख देते है ये शलोक !! धन्यवाद
मेरी नयी पोस्ट
माँ नहीं है वो मेरी, पर माँ से कम नहीं है !!!
ReplyDeleteनहीं प्रेम या द्वेष किसी से
मैं समभाव हूँ सब में रखता.
वे मुझमें हैं और मैं उन में
भक्तिपूर्वक मुझे जो भजता.
सरल शब्दावली और सरल प्रवाह ...आभार आपका
इस महाभाव में ले जाने के लिए आभार..
ReplyDeleteMAN KHIL UTHTAA HAI AAPKEE KAVYA - PANKTIYON KO PADH KAR .
ReplyDeleteप्रवाहमयी पावन प्रस्तुति!!!
ReplyDeleteदीपावली की हार्दिक शुभकामनाएँ!!
हमेशा की तरह सुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteराजर्षि, ब्राह्मणों का क्या कहना
ReplyDeleteपुण्य कर्म से वे पाते हैं मुझको.
अनित्य, दुखमय संसार में आकर
अतः भजो अर्जुन तुम मुझको.
सच है उसका नाम ही काफी है ... लाजवाब श्रंखला ...