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Saturday, June 09, 2012

श्रीमद्भगवद्गीता-भाव पद्यानुवाद (१३वीं-कड़ी)


तृतीय अध्याय
(कर्म-योग - ३.१-७)

अर्जुन 

कर्म मार्ग की यदि तुलना में,
बुद्धि मानते श्रेष्ठ हो माधव.
क्यों मुझको करते हो उद्यत
हिंसक युद्ध धर्म को केशव.  

कहीं कर्म की करें प्रशंसा,
कहीं ज्ञान की महिमा कहते.
मिलीजुली सी बातें कह कर
मेरी बुद्धि भ्रमित हैं करते.  

श्रेष्ठ कौन सा इन दोनों में,
निश्चित करके मुझे बताओ.
मैं कल्याण प्राप्त कर पाऊँ,
मुझे मार्ग तुम वह बतलाओ.

श्री भगवान 

दो निष्ठायें हैं इस जग में,
पहले बतलायी हैं तुम को.
ज्ञान योग सांख्यवादी को,
कर्म योग कर्मवादी को.

कर्म विरत होने से ही जन,
न निष्काम कर्म को पाता.
न केवल सन्यासी हो कर
प्राप्त कोई सिद्धि कर पाता.

कोई जन भी बिना कर्म के 
पल भर को भी न रह सकता.
विवश प्रकृतिजन्य गुणों से
उसे कर्म है करना पडता.

कर्म इन्द्रियों पर संयम है,
मन विषयों का चिंतन करता.
मूढ़ प्रकृति हो गयी है उसकी,
वह मिथ्याचारी कहलाता.

मन से रखे संयमित इन्द्रिय,
अनासक्त हो कर के अर्जुन.
कर्मयोग कर्मेन्द्रिय से  करता,
अति उत्कृष्ट है होता वह जन.
               
                       ......क्रमशः

कैलाश शर्मा 

Monday, June 04, 2012

श्रीमद्भगवद्गीता-भाव पद्यानुवाद (१२वीं-कड़ी)


द्वितीय अध्याय
(सांख्य योग - २.६४-७२)


राग द्वेष से जो विमुक्त हो
संसारिक विषयों को भोगता.
कर लेता वश में जो इन्द्रिय,
वह ज्ञानी आनन्द भोगता.


पाता परम शान्ति साधक,
सब दुखों का नाश है होता.
बुद्धि प्रतिष्ठित होती उसकी 
प्रसन्नचित साधक जो होता.


जिसकी इन्द्रिय नहीं संयमित,  
बुद्धि, भावना हीन है वह होता.
शान्ति नहीं मिल पाती उसको, 
कैसे अशांत सुख भागी होगा?


इन्द्रिय सुख के पीछे भागे
उसकी बुद्धि हरण हो जाती.
जैसे तेज हवा नौका को 
जल में खींच दूर ले जाती.


पार्थ! इन्द्रियां हैं जिसकी
निगृहीत विषयों से होती.
ऐसे सन्यासी की बुद्धि
पूर्णमेव प्रतिष्ठित होती.


होती निशा सर्व जन को जब, 
आत्म संयमी तब जगता है.
होती रात्रि सर्वग्य मुनि को,
जब जग में प्राणी जगता है.


नदियाँ हैं जल भरती रहतीं,
पर सागर कब मर्यादा तजता.
स्थिर मन ही शान्ति है पाता,
कामी जन न शान्ति है लभता.


सभी कामनाओं को तज कर,
भोगों के प्रति जो निस्पृह होता.
अहंकार, मोह विहीन वह ज्ञानी 
परम शान्ति अधिकारी होता.


ब्रह्मनिष्ठ मन की यह स्थिति,
इसे प्राप्त कर मोह न होता.
मृत्यु पूर्व कुछ क्षण स्थित हो 
ब्रह्म लीन वह जन है होता.


..... द्वितीय अध्याय समाप्त 
                   
                 .......क्रमशः


कैलाश शर्मा 

Wednesday, May 30, 2012

श्रीमद्भगवद्गीता-भाव पद्यानुवाद (११वीं-कड़ी)


द्वितीय अध्याय
(सांख्य योग - २.५७-६३)

शुभ को पाकर न हर्षित हो,
न विषाद अशुभ से होता.
है आसक्ति शून्य सर्वत्र,
वह ही स्थिर बुद्धि है होता.

जैसे कच्छप अंग सभी को 
सब ओरों से है समेटता.
स्थिर बुद्धि इन्द्रियाँ अपनी 
सब विषयों से है समेटता.

विषयों से निवृत्त भले हों,
विषयों से आसक्ति न जाती.
साक्षात्कार आत्मा से जब हो,
विषय राग निवृत्ति हो जाती.

हे कौन्तेय! विवेकी जन हैं
मोक्ष प्राप्ति की कोशिश करते.
पैदा करतीं विक्षोभ इन्द्रियाँ,
मन फिर कब काबू में रहते.

इन्द्रिय पर जो संयम करके,
मन एकाग्र लगाता मुझ में.
बुद्धि प्रतिष्ठित होती उसकी
जो कर लेता उनको वश में.

विषयों का चिंतन करने से
मन विषयों में ही लग जाता.
आसक्ति इच्छा जनती है,
काम क्रोध फ़िर पैदा करता.

क्रोध नष्ट करता विवेक को,
स्मृति जिससे विचलित हो जाती.
स्मृति विभ्रम है बुद्धि विनाशक,
बुद्धिनाश विनाश कारण हो जाती.
                           
                              ......क्रमशः 


कैलाश शर्मा 

Monday, May 28, 2012

श्रीमद्भगवद्गीता-भाव पद्यानुवाद (१०वीं-कड़ी)


द्वितीय अध्याय
(सांख्य योग - २.५१-५६)

कर्मजनित फल तज कर के
जन्म बंधनों से छुट जाते.
बुद्धि युक्त साधक आखिर में
परम मोक्ष पद को हैं पाते.

जब तुम अपनी बुद्धि अर्जुन
मोह कलुष से पार करोगे.
जितना सुना, सुनोगे आगे,
वैराग्य भाव उससे पाओगे.

श्रुतियों से विचलित तव बुद्धि,
जब यह निश्चल हो जायेगी.
अचल समाधि पाओगे जब,
योग अवस्था मिल जायेगी.

अर्जुन :
केशव तुम समझाओ मुझको
क्या लक्षण एकाग्र चित्त का.
कैसी वाणी, चाल चलन है 
जो स्थितप्रग्य बताओ उसका.

भगवान कृष्ण :
हो संतुष्ट स्वयं के अन्दर,
सभी कामनायें तज देता.
पार्थ, उसी साधक जन को  
स्थितप्रग्य है जाना जाता. 

होता न उद्विग्न दुखों से 
सुख की उसको चाह न होती.
राग, द्वेष, भय से ऊपर है
उसकी अविचल बुद्धि है होती.

              ......क्रमशः 

कैलाश शर्मा 

Wednesday, May 23, 2012

श्रीमद्भगवद्गीता-भाव पद्यानुवाद (९वीं-कड़ी)


द्वितीय अध्याय
(सांख्य योग - २.४५-५०)

त्रिगुण कर्म वेदों में वर्णित,
उनसे ऊपर उठो पार्थ तुम.
नित्य सत्व में स्थित हो कर,
सुख दुःख से निर्द्वंद बनो तुम.


चहुँ ओर जब बाढ़ उमडती,
कुएं से जो सिद्ध प्रयोजन.
ब्रह्मनिष्ठ जन का भी होता,
सब वेदों से वही प्रयोजन.

है अधिकार कर्म पर केवल,
फल पर न अधिकार समझना.
बनो न हेतु कर्म फल के तुम,
पर अकर्म आसक्त न बनना.

तज कर मोह कर्म के फल का,
कर्म करो तुम योग समझ कर.
दुःख सुख में समत्व भाव ही 
कहलाता है योग धनञ्जय.

बुद्धियोग की तुलना में,
है निकृष्ट, कर्म फल हेतु.
होते वे नर दीन हीन हैं,
फल जिनके कर्मों का हेतु.

अच्छे और बुरे कर्मों को 
बुद्धियुक्त साधक तज देते.
बनो कर्म योग के साधक,
कर्म कुशलता योग हैं कहते.

               ...... क्रमशः 

कैलाश शर्मा