द्वितीय अध्याय
(सांख्य योग - २.५१-५६)
कर्मजनित फल तज कर के
जन्म बंधनों से छुट जाते.
बुद्धि युक्त साधक आखिर में
परम मोक्ष पद को हैं पाते.
जब तुम अपनी बुद्धि अर्जुन
मोह कलुष से पार करोगे.
जितना सुना, सुनोगे आगे,
वैराग्य भाव उससे पाओगे.
श्रुतियों से विचलित तव बुद्धि,
जब यह निश्चल हो जायेगी.
अचल समाधि पाओगे जब,
योग अवस्था मिल जायेगी.
अर्जुन :
केशव तुम समझाओ मुझको
क्या लक्षण एकाग्र चित्त का.
कैसी वाणी, चाल चलन है
जो स्थितप्रग्य बताओ उसका.
भगवान कृष्ण :
हो संतुष्ट स्वयं के अन्दर,
सभी कामनायें तज देता.
पार्थ, उसी साधक जन को
स्थितप्रग्य है जाना जाता.
होता न उद्विग्न दुखों से
सुख की उसको चाह न होती.
राग, द्वेष, भय से ऊपर है
उसकी अविचल बुद्धि है होती.
......क्रमशः
कैलाश शर्मा
वाह बेहद ज्ञानवर्धक प्रसंग चल रहा है।
ReplyDeleteप्रेरणात्मक पंक्तियां ..
ReplyDeleteबहुत ही बेहतरीन लिखा है आपने ... आभार.
विख्यात श्लोक का सुन्दर अनुवाद..
ReplyDeleteप्रेरणात्मक श्लोक का सुन्दर अनुवाद,,,,,,
ReplyDeleteसुंदर प्रस्तुति,,,,,
RECENT POST ,,,,, काव्यान्जलि ,,,,, ऐ हवा महक ले आ,,,,,.
होता न उद्विग्न दुखों से
ReplyDeleteसुख की उसको चाह न होती.
राग, द्वेष, भय से ऊपर है
उसकी अविचल बुद्धि है होती.
बहुत सुंदर ज्ञान बोध कराती श्रंखला, आभार!
Bahut santosh milta ise padhke!
ReplyDeleteहोता न उद्विग्न दुखों से
ReplyDeleteसुख की उसको चाह न होती.
राग, द्वेष, भय से ऊपर है
उसकी अविचल बुद्धि है होती.
काव्य रूपांतरण /भावानुवाद बहुत बोध गम्य सहज ज्ञेय.
बहुत ही बढ़िया और प्रेरणादायी
ReplyDeleteसभी बेहतरीन सन्देश देती प्रस्तुति...
सुन्दर....