घर की अलगनी के दो छोर
जोड़े रहे दो दीवारों की दूरी,
दूर हो कर भी बने रहे
एक ही सूत्र के दो छोर.
जिसने जो चाहा टांग दिया,
ढ़ोते रहे सारे घर का बोझ
दो छोरों के बीच
और नहीं की शिकायत
कभी किसी से.
जीवन के आख़िरी पहर में
बंट गयीं दीवारें
अपनों के बीच,
टूटी अलगनी के दो छोर
ताकते हैं एक दूसरे को
नम आँखों से.
क्या दीवारें समझ पाती हैं
टूटी अलगनी के
दो छोरों का दर्द ?
कैलाश शर्मा
जोड़े रहे दो दीवारों की दूरी,
दूर हो कर भी बने रहे
एक ही सूत्र के दो छोर.
जिसने जो चाहा टांग दिया,
ढ़ोते रहे सारे घर का बोझ
दो छोरों के बीच
और नहीं की शिकायत
कभी किसी से.
जीवन के आख़िरी पहर में
बंट गयीं दीवारें
अपनों के बीच,
टूटी अलगनी के दो छोर
ताकते हैं एक दूसरे को
नम आँखों से.
क्या दीवारें समझ पाती हैं
टूटी अलगनी के
दो छोरों का दर्द ?
बहुत बढ़िया सर!
ReplyDeleteसादर
बहुत ही अच्छे प्रतीक का प्रयोग किया सार्थक रचना
ReplyDeleteसंबंधों की प्रखर व्याख्या
ReplyDeleteबहुत सुन्दर.....कुछ अलग सा ।
ReplyDeleteअद्भुत बिम्ब.बहुत सुन्दर ख्याल.
ReplyDeletejeevan kaa dard ,
ReplyDeletebahut badhiyaa tareeke se vyakt kiyaa hai aapne
alagnee kaa kaam sirf khaamoshee se bojh dhonaa bhar hai
क्या दीवारें समझ पाती हैं
ReplyDeleteटूटी अलगनी के
दो छोरों का दर्द ?
बहुत ही अच्छी प्रस्तुति ।
Bahut sundar prastuti
ReplyDeleteजिसने जो चाहा टांग दिया,
ReplyDeleteढ़ोते रहे सारे घर का बोझ
दो छोरों के बीच
और नहीं की शिकायत
कभी किसी से
गूढ़ बात कही !
प्रभावित करती रचना ...
ReplyDeleteज़िन्दगी की कहानी कहती रचना...सुंदर प्रस्तुति|
ReplyDeleteगहन रचना...कौन जाने समझ पाती हैं कि नहीं वो दीवारें..
ReplyDeletezindgi ka satya batati rachna........
ReplyDeleteबिम्ब का अद्भुत प्रयोग। इस दर्द के दर्द को सही ढंग से अभिव्यक्त करता है।
ReplyDeleteकारुणिक!
ReplyDeleteकटु यथार्थ का चित्रण और एक व्यथित करने वाले प्रश्न पर समाप्त होती कविता जहां से अपने ही भीतर झाँकने का दौर शुरू होता है....
a post with intense feel...
ReplyDeletebeautiful sir..
वाह!!!!!कैलाश जी कटु यथार्थ की भावपूर्ण बहुत अच्छी अभिव्यक्ति,सुंदर रचना
ReplyDeleteMY NEW POST ...सम्बोधन...
क्या दीवारें समझ पाती हैं
ReplyDeleteटूटी अलगनी के
दो छोरों का दर्द ?... दीवारें ही समझती हैं , अलग अलग छोर पर खड़े लोग नहीं
पता नहीं दर्द दीवारों को है कि अलगनी के टूटे हुए छोरों को ........ गहन अभिव्यक्ति !
ReplyDeleteबढिया रचना।
ReplyDeleteअलगनी के माध्यम से बहुत कुछ कह दिया है आपने |बढ़िया प्रस्तुति |
ReplyDeleteआशा
क्या दीवारें समझ पाती हैं
ReplyDeleteटूटी अलगनी के
दो छोरों का दर्द ?
Gahari Abhivykti....
जीवन के आख़िरी पहर में
ReplyDeleteबंट गयीं दीवारें
अपनों के बीच,
टूटी अलगनी के दो छोर
ताकते हैं एक दूसरे को
नम आँखों से.
कैलाश जी सही भाव इस कविता में हैं और यह बहुत आश्चर्यजनक भी है कि इतने साल साथ चलते हुए भी मजबूर हो जाते है अलग होने के लिये.
सुंदर रचना.
बहुत सुन्दर..
ReplyDeleteबटवारे का दर्द असहनीय होता है...
गहन प्रस्तुति...
सादर.
बहुत बेहतरीन....
ReplyDeleteमेरे ब्लॉग पर आपका हार्दिक स्वागत है।
कितनी सहजता से सत्य को कह देते हैं आप.. आपकी संवेदनशीलता को नमन..
ReplyDeleteसंवेदनशील रचना
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
अद्भुत बिम्बों के सहारे अंतर्स्पर्शी रचना...
ReplyDeleteसादर बधाई सर.
क्या दीवारें समझ पाती हैं
ReplyDeleteटूटी अलगनी के
दो छोरों का दर्द ?
bhai wah kya khoob likha hai apne ...sadar badhai .
बहुत सुन्दर भाव लिए प्रतिबिम्बों से सजी रचना
ReplyDeleteजटिल प्रतीकों के प्रयोग के बावजूद कविता का कथ्य स्पष्ट रूप से दृश्यमान है।
ReplyDeleteआपकी पोस्ट आज की ब्लोगर्स मीट वीकली (३१) में शामिल की गई है/आप आइये और अपने विचारों से हमें अवगत करिए /आप इसी तरह लगन और मेहनत से हिंदी भाषा की सेवा करते रहें यही कामना है /आभार /
ReplyDeleteदीवारों को जोड़ने का काम करती अलगनी .... सुंदर बिम्ब और मन के दर्द को उभारती सुंदर रचना
ReplyDeleteगहन और गूढ़ अनुभूति लिए सुन्दर प्रस्तुति.. आप को शिव रात्रि पर हार्दिक बधाई..
ReplyDeleteअच्छी रचना।
ReplyDeleteक्या दीवारें समझ पाती हैं
ReplyDeleteटूटी अलगनी के
दो छोरों का दर्द ?
बहुत मार्मिक रचना...!
क्या दीवारें समझ पाती हैं
ReplyDeleteटूटी अलगनी के
दो छोरों का दर्द ?...
ऊंची दीवारों से दर्द कहाँ नज़र आता है ... मार्मिक लिखा है बहुत ही ...
महाशिवरात्रि की हार्दिक शुभकामनाये.
ReplyDeleteबहुत बढ़िया विषय और सुन्दर प्रतीकों के माध्यम से दर्द को व्यक्त किया आभार
ReplyDeleteगहन अभिव्यक्ति....आभार
ReplyDeleteबहुत गहरे भाव .. बेहद संजीदा लेखन
ReplyDeleteबहुत सुन्दर सृजन , बधाई.
ReplyDeleteदीवारें तो फिर भी समझ जाएँगी,लेकिन जो मानव-निर्मित दिवार है वह कब की गिर गई...कोई गुंजाईश ही नहीं बची,छोरों के मिलने की !
ReplyDeleteek bahut hi samvedan sheel marm ko kitne achche saral shabdon me algani ke maadhyam se aapne apni rachna me kah diya....vaah laajabab
ReplyDeleteक्या बात है कैलाश जी.
ReplyDeleteअलगनी को फिर तो मिलगनी
कहना चाहिए,जिसपर नाजायज बोझ
डालकर हम तोड़ देते हैं.दीवारों का भी क्या
कसूर है.
सुन्दर प्रस्तुति के लिए आभार जी.