(चित्र गूगल से साभार)
दहशतज़दा
है हर चेहरा मेरे शहर में,
इंसान
नज़र आते न अब मेरे शहर में.
अहसास
मर गए हैं, इंसां हैं मुर्दों जैसे,
इक
बू अज़ब सी आती है मेरे शहर में.
हर
नज़र है कर जाती चीर हरण मेरा,
महफूज़
नहीं गलियां अब मेरे शहर में.
घर
हो गए मीनारें, इंसान हुआ छोटा,
रिश्तों
में न हरारत, अब मेरे शहर में.
लब
भूले मुस्कराना, तन्हाई है आँखों में,
मिलते
हैं अज़नबी से सब मेरे शहर में.
दौलत
है छुपा देती हर ऐब है इंसां का,
इंसानियत
कराह रही अब मेरे शहर में.
.....कैलाश शर्मा
हर नज़र है कर जाती चीर हरण मेरा,
ReplyDeleteमहफूज़ नहीं गलियां अब मेरे शहर में...
सच कहा है ... शर्म आने लगी है अब अपने शहर को भी पहचानने में .... बहुत ही लाजवाब गज़ल है ...
वाह आदरणीय वाह वर्तमान परिस्थिति का बहुत ही सुन्दरता से वर्णन किया है आपने, बेहद सटीक कटु सत्य. ह्रदय की पीड़ा बयां कर दी आपने.
ReplyDeleteअज़नबी से सब................
ReplyDeleteदौलत है छुपा देती हर ऐब है इंसां का,
इंसानियत कराह रही अब मेरे शहर में...............वर्तमान कटु सत्य।
आज शहरों में दम तोडती संवेदनाओं का मर्मस्पर्शी चित्रण!
ReplyDeleteवर्तमान यथास्थिति का सटीक चित्रण...
ReplyDeleteआज की स्थिति का सही जायजा पेश करती सुंदर गज़ल
ReplyDeleteलब भूले मुस्कराना, तन्हाई है आँखों में,
ReplyDeleteमिलते हैं अज़नबी से सब मेरे शहर में.
शहरीकरण सब छीन रहा है हमसे ....और हम हैं कि छिनने दे भी रहे हैं ...
यथार्थ कहती सुन्दर रचना ...!!
कैसे यह सब देखा जाये,
ReplyDeleteरात अँधेरा घिरता जाये।
बहुत बढ़िया...
ReplyDeleteलब भूले मुस्कराना, तन्हाई है आँखों में,
मिलते हैं अज़नबी से सब मेरे शहर में.
मन को छूती गुज़र गयी ग़ज़ल...
सादर
अनु
मन की बेकली को बहुत खूबसूरत अल्फाजों में ढाला है कैलाश जी ! बहुत बढ़िया गज़ल है ! दाद कबूल करें !
ReplyDeleteदिल में छाए असमंजस को सुन्दर शब्द देती रचना !!
ReplyDeleteआज के भयावह और दर्दनाक हालात बयां करती आपकी हर पंक्ति ....
ReplyDeleteविकास के नाम पर सब कुछ छीन रहा है यह शहर... सटीक अभिव्यक्ति... आभार
ReplyDeleteहर नज़र है कर जाती चीर हरण मेरा,
ReplyDeleteमहफूज़ नहीं गलियां अब मेरे शहर में----
वाकई वर्तमान का सच है,बहुत मार्मिक अंदाज में
बयां करती रचना
गहन अनुभूति
बधाई
हम सभी मृतप्राय से हो गए हैं. इंसान कोई बचा नहीं, जो है सभी आत्माविहीन मानव...
ReplyDeleteअहसास मर गए हैं, इंसां हैं मुर्दों जैसे,
इक बू अज़ब सी आती है मेरे शहर में.
ससामयिक चिंतन. सभी शेर बहुत उम्दा. शुभकामनाएं.
वर्त्तमान परिस्थिति का हुबहू चित्रण करती रचना
ReplyDeletelatest post बे-शरम दरिंदें !
latest post सजा कैसा हो ?
अच्छी रचना।
ReplyDeleteवाकई ऐसा ही भय है आजकल है ..किस गली किस नुक्कड़ पर कोई भेडिया खड़ा हो. सुन्दर अभिव्यक्ति.
ReplyDeleteसोचने पर मजबूर करती हुई एक बेहतरीन ग़ज़ल...
ReplyDeletebehtareen rachna.....aaj ka sach bayan karti..
ReplyDeleteसही कहा आपने , अब किस पर विश्वास कीजिये
ReplyDeleteकैलाश जी,आज के हालात कुछ ऐसी ही तस्वीर दिखा रहे हैं..लेकिन वक्त बदलेगा..
ReplyDeleteहर नज़र है कर जाती चीर हरण मेरा,
ReplyDeleteमहफूज़ नहीं गलियां अब मेरे शहर में.
इन्सान सब कुछ भूल गया है,भावना भी,संवेदना भी.अच्छी प्रस्तुति
आज के बिगड़ते हालात पर बेहतरीन प्रस्तुति,आभार.
ReplyDeletebahut sunder .kripya mere blog par bhi padharen aapka swagat hai.
ReplyDeleteyatharth ka sundar sateek chitran...
ReplyDeleteaapke gajal direct dil ko chhute hain...
ReplyDeleteलब भूले मुस्कराना, तन्हाई है आँखों में,
ReplyDeleteमिलते हैं अज़नबी से सब मेरे शहर में.
सही चित्रण आज की रुखी जिन्दगी की तस्वीर का .....
शुभकामनायें!
बहुत खूब
ReplyDeleteहम सब के बीच से संवेदनाएँ खत्म हो रही हैं ...तभी आज कल बलात्कार की घटनाएँ भी ज़ोर पकड़े हुए हैं
आज की सबसे बड़ी वेदना ही यही है कि संवेदना ही समाप्त हो गयी है ....
ReplyDeleteबहुत प्रभावी ग़ज़ल
ReplyDeleteबहुत सुन्दर.. प्रभावी ग़ज़ल..आभार
ReplyDeleteबहुत खूब |
ReplyDeleteकभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
Tamasha-E-Zindagi
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बहुत अच्छी कविता...इंसानियत कराह रही है अब मेरे शहर में... आभार
ReplyDeleteअहसास मर गए हैं, इंसां हैं मुर्दों जैसे,
ReplyDeleteइक बू अज़ब सी आती है मेरे शहर में.
इंसानियत का बजूद बना रहे यही उम्मीद करनी चाहिये.
हर नज़र है कर जाती चीर हरण मेरा,
ReplyDeleteमहफूज़ नहीं गलियां अब मेरे शहर में.
बहुत खूब !
सचबयानी के लिये वधाई !तभी तो समाज का दर्पण है |
ReplyDeleteहै इसकी बड़ी ग़ुरबत, आइना है मेरे हाथ में |
इसकी तुझे ज़रूरत,आइना है मेरे हाथ में ||
होता न यह अगर तो,सच सामने न आता-
ले देख अपनी सूरत,आइना है मेरे हाथ में ||
घर हो गए मीनारें, इंसान हुआ छोटा
ReplyDeleteपतन का यह सिला न जाने कहाँ थमेगा.अच्छी गज़ल.
बस... आह..
ReplyDeleteदौलत है छुपा देती हर ऐब है इंसां का,
ReplyDeleteइंसानियत कराह रही अब मेरे शहर में.
बहुत खूब !
बस कुछ बची कुची इंसानियत पर ही दुनिया टिकी है
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तेरे मेरे प्यार का अपना आशियाना !!
वाह बहुत ही सुन्दर लिखा है आपने।
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