मेरी प्रकाशित पुस्तक 'श्रीमद्भगवद्गीता (भाव पद्यानुवाद)' के कुछ अंश:
बारहवाँ अध्याय
(भक्ति-योग-१२.१२-२०)बारहवाँ अध्याय
श्रेष्ठ ज्ञान अभ्यास से होता
ध्यान ज्ञान से श्रेष्ठ कहाता.
उससे श्रेष्ठ कर्म फल तजना,
जिससे परम शान्ति है पाता. (१२.१२)
द्वेषहीन, मित्र है सब का,
अपने दूजे का भाव न रखता.
करुणाशील अहंकारहीन है
क्षमाशील, समत्व में रहता. (१२.१३)
रहता संतुष्ट सदा जो योगी,
दृढनिश्चयी व संयमी होता.
मन बुद्धि मम अर्पित करता,
ऐसा भक्त मुझे प्रिय होता. (१२.१४)
जग को जो उद्विग्न न करता,
न उससे उद्विग्न है होता.
ईर्ष्या, भय, उद्वेग रहित जो
वैसा भक्त मुझे प्रिय होता. (१२.१५)
इच्छा रहित शुद्ध निपुण है,
तटस्थ मुक्त पीड़ा से होता.
कर्तापन का भाव न रखता,
ऐसा भक्त मुझे प्रिय होता. (१२.१६)
न हर्षित, न द्वेष है करता,
न ही शोक, आकांक्षा करता.
शुभ व अशुभ त्याग जो देता
ऐसा भक्त मुझे प्रिय लगता. (१२.१७)
हो सम भाव शत्रु मित्रों से,
मान अपमान में ध्रुव रहता.
सुख दुःख में समत्व बुद्धि है,
सभी मोह से मुक्त है रहता. (१२.१८)
निंदा स्तुति में सम जन जो
मौन, सदा संतुष्ट है रहता.
मोहमुक्त, प्रिय वह मुझको
एकाग्र बुद्धि से है जो भजता. (१२.१९)
किन्तु धर्ममय अमृत पथ का
कथनानुसार अनुसरण करते.
श्रद्धापूर्ण समर्पित जो मुझ में,
भक्त मुझे वे अति प्रिय लगते. (१२.२०)
**बारहवां अध्याय समाप्त**
......क्रमशः
...कैलाश शर्मा
बहुत सुन्दर भावों से सजे खूबसूरत पद्य | भगवान् श्री कृषण की लीला अपरम्पार है | आभार
ReplyDeleteकभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
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बेहतरीन भाव लिए पद्य ,सुंदर प्रस्तुति ,,, आभार कैलाश जी,,,
ReplyDeleteRECENT POST: मधुशाला,
जग को जो उद्विग्न न करता,
ReplyDeleteन उससे उद्विग्न है होता.
ईर्ष्या, भय, उद्वेग रहित जो
वैसा भक्त मुझे प्रिय होता.
ऐसा भक्त ही तो बनना मुश्किल है .... बहुत सुंदर अनुवाद
तटस्थ और लीन, श्रेष्ठ भक्त
ReplyDeletebahut hi accha prayas aapka geeta ki panktikyon ka hindi anuvaad karna! padhkar bahut khushi huyi.
ReplyDelete-Abhijit (Reflections)
बेहतरीन भाव लिए पद्य ,सुंदर प्रस्तुति.
ReplyDeletesundar prastuti...
ReplyDeleteउद्विग्न न करता,
ReplyDeleteन उससे उद्विग्न है होता......समुचित भाव।
बहुत सुंदर भाव लिए खुबसूरत प्रस्तुति.. "बाल मन की राहें" में मेरी नई पोस्ट "
ReplyDeleteश्री कृष्ण ने एक भक्त के लिए जिन गुणों को आवश्यक मन है; वह सभी एक सम्पूर्ण इंसान में होने चाहिए, और वही इश्वर का भक्त हो सकता है. बहुत सुन्दर शब्द सज्जा और भाव प्रस्तुति. बधाई.
ReplyDeleteइच्छा रहित शुद्ध निपुण है,
ReplyDeleteतटस्थ मुक्त पीड़ा से होता.
कर्तापन का भाव न रखता,
ऐसा भक्त मुझे प्रिय होता.
कितना सुंदर चित्रण...आभार!
स्थितप्रज्ञ. सुन्दर अनुवाद
ReplyDeleteजय हो प्रभु ...
ReplyDeleteयहाँ आकर सत्संग लाभ महसूस होता है !
बधाई कैलाश भाई !
सुंदर चित्रण. बहुत पुण्य का काम कर रहे कैलाश जी.
ReplyDeleteverses simplified for readers to understand in a wonderful style..I liked all verses but the one that touched me is (12:17)
ReplyDeleteन हर्षित, न द्वेष है करता,
न ही शोक, आकांक्षा करता.
शुभ व अशुभ त्याग जो देता
ऐसा भक्त मुझे प्रिय लगता...beautiful lines
Kailash Sharmaji GOD BLESS YOU
GOD<3U
देखते देखते १२ अध्याय भी खत्म हो गए ...
ReplyDeleteआप सच में एक महान कार्य कर रहे हैं ...