(चित्र गूगल से साभार)
एक बार तेरे शहर में आकर जो बस गया,
एक बार तेरे शहर में आकर जो बस गया,
ता-उम्र फड़फडाता, किस
पिंज़रे में फ़स गया.
नज़रें नहीं मिलाता, कोई
यहाँ किसी से,
एक अज़नबी हूँ भीड़
में, यह दर्द डस गया.
रिश्तों की हर गली
से गुज़रा मैं शहर में,
स्वारथ का मकडजाल,
मुझे और क़स गया.
साये में उनकी ज़ुल्फ़
के ढूंढा किये सुकून,
वह छोड़ हम को धूप
में महलों में बस गया.
आती हैं याद मुझ को
गलियां वो गाँव की,
वह ख़्वाब अश्क़ बन के
आँखों में बस गया.
ऊंचे हैं ख़्वाब सब
के, पैरों तले ज़मीं न,
ज़ब भी गिरा ज़मीं पर,
दलदल में फ़स गया.
न मिल ही पायी मंज़िल,
गुम हो गयी हैं राहें,
इस कशमकश-ए-हयात में,
कैसे मैं फ़स गया.
....कैलाश शर्मा
बहुत सुन्दर भावों की अभिव्यक्ति ..
ReplyDeletemaya ka jaal hi kuchh aisa hota hai ....
ReplyDeleteयूँ ही तड़पड़ाता है मन।
ReplyDeletebahut hi sundar rachna! ye panktiyan kuch zada pasand aayi:
ReplyDeleteनज़रें नहीं मिलाता, कोई यहाँ किसी से,
एक अज़नबी हूँ भीड़ में, यह दर्द डस गया.
-Abhijit (Reflections)
नज़रें नहीं मिलाता, कोई यहाँ किसी से,
ReplyDeleteएक अज़नबी हूँ भीड़ में, यह दर्द डस गया.
बहुत खूबसूरत अभिव्यक्ति ! एक कसक मन में छोड़ जाती है ! मनोभावों को बड़ी कुशलता से उकेरा है ! बहुत सुंदर !
लाजवाब !
ReplyDeleteआती हैं याद मुझ को गलियां वो गाँव की,
ReplyDeleteवह ख़्वाब अश्क़ बन के आँखों में बस गया
बहुत ही बेहतरीन प्रस्तुति,सादर आभार.
न मिल ही पायी मंज़िल, गुम हो गयी हैं राहें,
ReplyDeleteइस कशमकश-ए-हयात में, कैसे मैं फ़स गया.
इस कशमकश को तो जीना ही होता है ... इसमें आते ही सब कुछ भूल जाता है इंसान ...
आती हैं याद मुझ को गलियां वो गाँव की,
ReplyDeleteवह ख़्वाब अश्क़ बन के आँखों में बस गया............जो परिवेश मनुष्य जीवन के लिए होना चाहिए,वही तो याद आएगा। शहरी झंझावातों से घिरे मन की गहन पीड़ा उभर कर आई है इन पंक्तियों के माध्यम से। इस हेतु बधाई आपको।
न मिल ही पायी मंज़िल, गुम हो गयी हैं राहें,
ReplyDeleteइस कशमकश-ए-हयात में, कैसे मैं फ़स गया..... वाह कैलाश जी ... लाजवाब अभिव्यक्ति !
लाजवाब लिखे हैं सर!
ReplyDeleteसादर
सच घुटन सी महसूस कभी कभी..... गहरी अभिव्यक्ति
ReplyDeleteजब याद आयें ,शहर के जुल्मों-सितम
ReplyDeleteलगे सीने में इक तीर और धँस गया .....
एक कड़वा सच बयाँ करते एहसास !!!!
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
ReplyDeleteआपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा कल बुधवार (15-05-2013) के "आपके् लिंक आपके शब्द..." (चर्चा मंच-1245) पर भी होगी!
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आभार..
Deleteआती हैं याद मुझ को गलियां वो गाँव की,
ReplyDeleteवह ख़्वाब अश्क़ बन के आँखों में बस गया...बहुत ही बढ़िया
बहुत खूब, सुन्दर
ReplyDeleteसादर!
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteभीड़ में घुटन की..... बहुत सुंदर अभिव्यक्ति !!
ReplyDeleteएक बार तेरे शहर में आकर जो बस गया,
ReplyDeleteता-उम्र फड़फडाता, किस पिंज़रे में फ़स गया.,,,, बहुत सुंदर अभिव्यक्ति !!
इस कशमकश से शायद हर रोज़ ही गुज़रता है हर कोई यथार्थ का आईना दिखती सार्थक अभिव्यक्ति...
ReplyDeleteकशमकश को यथार्थ रूप में दर्शाया है आपने
ReplyDeleteनज़रें नहीं मिलाता, कोई यहाँ किसी से,
ReplyDeleteएक अज़नबी हूँ भीड़ में, यह दर्द डस गया.
न मिल ही पायी मंज़िल, गुम हो गयी हैं राहें,
इस कशमकश-ए-हयात में, कैसे मैं फ़स गया.- लाजवाब अभिव्यक्ति
अनुशरण कर मेरे ब्लॉग को अनुभव करे मेरी अनुभूति को
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हर सांस रुकी जैसे ताज़ा हवा गुम हुई
ReplyDeleteहर शख्स अजनबी पहचान अपनी भी न रही !
यही मंजर आम दीखते हैं इन दिनों शहर में
वाह! बहुत ख़ूबसूरत शेर ...
Deleteबहुत सुन्दर ग़ज़ल.
ReplyDeleteयहां सभी अजनबी होते जो रहे हैं। अच्छी अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteशहर आ कर कुछ ऐसा ही महसूस होता है .... खूबसूरत गज़ल
ReplyDeleteन मिल ही पायी मंज़िल, गुम हो गयी हैं राहें,
ReplyDeleteइस कशमकश-ए-हयात में, कैसे मैं फ़स गया.
जिन्दगी की हकीकत को बयाँ करती सच्ची सी तस्वीर..
रिश्तों की हर गली से गुज़रा मैं शहर में,
ReplyDeleteस्वारथ का मकडजाल, मुझे और क़स गया.
बहुत उम्दा प्रस्तुति
यह तो एक चक्रवयूह ही है जहाँ आना तो आसान है निकल भागना बेहद दुरूह. शहरी जीवन शैली पर प्रहार करती सुंदर प्रस्तुति.
ReplyDeleteआपने लिखा....हमने पढ़ा
ReplyDeleteऔर लोग भी पढ़ें;
इसलिए कल 16/05/2013 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
आप भी देख लीजिएगा एक नज़र ....
धन्यवाद!
आभार..
Deleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
ReplyDeleteयही सब कचोटता है ,कही शब्द ,कही ख़ामोशी कह देती है यही फसाना
ReplyDeleteek se ek sundar sher apni kasak ko shiddat se bayan karte hue ..
ReplyDeleteसभी इसी क़श्मक़श में फँसे हुए हैं....
ReplyDeleteसुंदर अभिव्यक्ति सर!
~सादर!!!
hum sab aise hi fanse hue hain....behtareen abhivyakti..
ReplyDeletea nice ghazal ,sir.
ReplyDeleteउम्दा..लाजवाब..
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर ग़ज़ल
ReplyDeleteऊंचे हैं ख़्वाब सब के, पैरों तले ज़मीं न,
ReplyDeleteज़ब भी गिरा ज़मीं पर, दलदल में फ़स गया...
...सब नसीबों की बात है ...जिंदगी यूँ ही जाने कितने इम्तिहान लेती रहती हैं ..
बहुत सुन्दरभावपूर्ण रचना
एक बार तेरे शहर में आकर जो बस गया,
ReplyDeleteता-उम्र फड़फडाता, किस पिंज़रे में फ़स गया.
आदरणीय कैलाश शर्मा जी, आप की रचना में शहर की मशीनी जिंदगी की लाचारी भी है,तो अजनबी बन कर जीने की पीड़ा भी. तमाम विसंगतियों के बावजूद कोमल हृदय भावुकता को त्याग नहीं पाता. भावपूर्ण रचना के लिये बधाई...
ऊंचे हैं ख़्वाब सब के, पैरों तले ज़मीं न,
ReplyDeleteज़ब भी गिरा ज़मीं पर, दलदल में फ़स गया...बहुत सुंदर गजल..