Tuesday, May 14, 2013

किस पिंज़रे में फ़स गया


                                                          (चित्र गूगल से साभार)

एक बार तेरे शहर में आकर जो बस गया,     
ता-उम्र फड़फडाता, किस पिंज़रे में फ़स गया.

नज़रें नहीं मिलाता, कोई यहाँ किसी से,
एक अज़नबी हूँ भीड़ में, यह दर्द डस गया.

रिश्तों की हर गली से गुज़रा मैं शहर में,
स्वारथ का मकडजाल, मुझे और क़स गया.

साये में उनकी ज़ुल्फ़ के ढूंढा किये सुकून,
वह छोड़ हम को धूप में महलों में बस गया.

आती हैं याद मुझ को गलियां वो गाँव की,
वह ख़्वाब अश्क़ बन के आँखों में बस गया.

ऊंचे हैं ख़्वाब सब के, पैरों तले ज़मीं न,
ज़ब भी गिरा ज़मीं पर, दलदल में फ़स गया.

न मिल ही पायी मंज़िल, गुम हो गयी हैं राहें,
इस कशमकश-ए-हयात में, कैसे मैं फ़स गया.

....कैलाश शर्मा 

45 comments:

  1. बहुत सुन्दर भावों की अभिव्यक्ति ..

    ReplyDelete
  2. maya ka jaal hi kuchh aisa hota hai ....

    ReplyDelete
  3. यूँ ही तड़पड़ाता है मन।

    ReplyDelete
  4. bahut hi sundar rachna! ye panktiyan kuch zada pasand aayi:

    नज़रें नहीं मिलाता, कोई यहाँ किसी से,
    एक अज़नबी हूँ भीड़ में, यह दर्द डस गया.

    -Abhijit (Reflections)

    ReplyDelete
  5. नज़रें नहीं मिलाता, कोई यहाँ किसी से,
    एक अज़नबी हूँ भीड़ में, यह दर्द डस गया.

    बहुत खूबसूरत अभिव्यक्ति ! एक कसक मन में छोड़ जाती है ! मनोभावों को बड़ी कुशलता से उकेरा है ! बहुत सुंदर !

    ReplyDelete
  6. आती हैं याद मुझ को गलियां वो गाँव की,
    वह ख़्वाब अश्क़ बन के आँखों में बस गया

    बहुत ही बेहतरीन प्रस्तुति,सादर आभार.

    ReplyDelete
  7. न मिल ही पायी मंज़िल, गुम हो गयी हैं राहें,
    इस कशमकश-ए-हयात में, कैसे मैं फ़स गया.

    इस कशमकश को तो जीना ही होता है ... इसमें आते ही सब कुछ भूल जाता है इंसान ...

    ReplyDelete
  8. आती हैं याद मुझ को गलियां वो गाँव की,
    वह ख़्वाब अश्क़ बन के आँखों में बस गया............जो परिवेश मनुष्‍य जीवन के लिए होना चाहिए,वही तो याद आएगा। शहरी झंझावातों से घिरे मन की गहन पीड़ा उभर कर आई है इन पंक्तियों के माध्‍यम से। इस हेतु बधाई आपको।

    ReplyDelete
  9. न मिल ही पायी मंज़िल, गुम हो गयी हैं राहें,
    इस कशमकश-ए-हयात में, कैसे मैं फ़स गया..... वाह कैलाश जी ... लाजवाब अभिव्यक्ति !

    ReplyDelete
  10. सच घुटन सी महसूस कभी कभी..... गहरी अभिव्यक्ति

    ReplyDelete
  11. जब याद आयें ,शहर के जुल्मों-सितम
    लगे सीने में इक तीर और धँस गया .....
    एक कड़वा सच बयाँ करते एहसास !!!!

    ReplyDelete
  12. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
    आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा कल बुधवार (15-05-2013) के "आपके् लिंक आपके शब्द..." (चर्चा मंच-1245) पर भी होगी!
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

    ReplyDelete
  13. आती हैं याद मुझ को गलियां वो गाँव की,
    वह ख़्वाब अश्क़ बन के आँखों में बस गया...बहुत ही बढ़िया

    ReplyDelete
  14. बहुत खूब, सुन्दर
    सादर!

    ReplyDelete
  15. This comment has been removed by the author.

    ReplyDelete
  16. भीड़ में घुटन की..... बहुत सुंदर अभिव्यक्ति !!

    ReplyDelete
  17. एक बार तेरे शहर में आकर जो बस गया,
    ता-उम्र फड़फडाता, किस पिंज़रे में फ़स गया.,,,, बहुत सुंदर अभिव्यक्ति !!

    ReplyDelete
  18. इस कशमकश से शायद हर रोज़ ही गुज़रता है हर कोई यथार्थ का आईना दिखती सार्थक अभिव्यक्ति...

    ReplyDelete
  19. कशमकश को यथार्थ रूप में दर्शाया है आपने

    ReplyDelete
  20. नज़रें नहीं मिलाता, कोई यहाँ किसी से,
    एक अज़नबी हूँ भीड़ में, यह दर्द डस गया.
    न मिल ही पायी मंज़िल, गुम हो गयी हैं राहें,
    इस कशमकश-ए-हयात में, कैसे मैं फ़स गया.- लाजवाब अभिव्यक्ति

    अनुशरण कर मेरे ब्लॉग को अनुभव करे मेरी अनुभूति को
    latest post हे ! भारत के मातायों
    latest postअनुभूति : क्षणिकाएं

    ReplyDelete
  21. हर सांस रुकी जैसे ताज़ा हवा गुम हुई
    हर शख्स अजनबी पहचान अपनी भी न रही !
    यही मंजर आम दीखते हैं इन दिनों शहर में

    ReplyDelete
    Replies
    1. वाह! बहुत ख़ूबसूरत शेर ...

      Delete
  22. यहां सभी अजनबी होते जो रहे हैं। अच्‍छी अभिव्‍यक्ति।

    ReplyDelete
  23. शहर आ कर कुछ ऐसा ही महसूस होता है .... खूबसूरत गज़ल

    ReplyDelete
  24. न मिल ही पायी मंज़िल, गुम हो गयी हैं राहें,
    इस कशमकश-ए-हयात में, कैसे मैं फ़स गया.

    जिन्दगी की हकीकत को बयाँ करती सच्ची सी तस्वीर..

    ReplyDelete
  25. रिश्तों की हर गली से गुज़रा मैं शहर में,
    स्वारथ का मकडजाल, मुझे और क़स गया.
    बहुत उम्दा प्रस्तुति

    ReplyDelete
  26. यह तो एक चक्रवयूह ही है जहाँ आना तो आसान है निकल भागना बेहद दुरूह. शहरी जीवन शैली पर प्रहार करती सुंदर प्रस्तुति.

    ReplyDelete
  27. आपने लिखा....हमने पढ़ा
    और लोग भी पढ़ें;
    इसलिए कल 16/05/2013 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
    आप भी देख लीजिएगा एक नज़र ....
    धन्यवाद!

    ReplyDelete
  28. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!

    ReplyDelete
  29. यही सब कचोटता है ,कही शब्द ,कही ख़ामोशी कह देती है यही फसाना

    ReplyDelete
  30. ek se ek sundar sher apni kasak ko shiddat se bayan karte hue ..

    ReplyDelete
  31. सभी इसी क़श्मक़श में फँसे हुए हैं....
    सुंदर अभिव्यक्ति सर!
    ~सादर!!!

    ReplyDelete
  32. hum sab aise hi fanse hue hain....behtareen abhivyakti..

    ReplyDelete
  33. उम्दा..लाजवाब..

    ReplyDelete
  34. बहुत सुन्दर प्रस्तुति.

    ReplyDelete
  35. बहुत सुन्दर ग़ज़ल

    ReplyDelete
  36. ऊंचे हैं ख़्वाब सब के, पैरों तले ज़मीं न,
    ज़ब भी गिरा ज़मीं पर, दलदल में फ़स गया...
    ...सब नसीबों की बात है ...जिंदगी यूँ ही जाने कितने इम्तिहान लेती रहती हैं ..
    बहुत सुन्दरभावपूर्ण रचना

    ReplyDelete
  37. एक बार तेरे शहर में आकर जो बस गया,
    ता-उम्र फड़फडाता, किस पिंज़रे में फ़स गया.

    आदरणीय कैलाश शर्मा जी, आप की रचना में शहर की मशीनी जिंदगी की लाचारी भी है,तो अजनबी बन कर जीने की पीड़ा भी. तमाम विसंगतियों के बावजूद कोमल हृदय भावुकता को त्याग नहीं पाता. भावपूर्ण रचना के लिये बधाई...

    ReplyDelete
  38. ऊंचे हैं ख़्वाब सब के, पैरों तले ज़मीं न,
    ज़ब भी गिरा ज़मीं पर, दलदल में फ़स गया...बहुत सुंदर गजल..

    ReplyDelete