जो भी मिला जीवन में
चढ़ाये था एक मुखौटा
अपने चेहरे पर,
हो गया मज़बूर मैं भी
समय के साथ चलने,
चढ़ा लिए मुखौटे
अपने चेहरे पर.
तंग आ गया हूँ
बदलते हर पल
बदलते हर पल
एक नया मुखौटा
हर सम्बन्ध, हर रिश्ते को.
रात्रि को जब
टांग देता सभी मुखौटे
खूंटी पर,
दिखाई देता आईने में
एक अज़नबी चेहरा
और ढूँढता अपना अस्तित्व
मुखौटों की भीड़ में.
सोचता हूँ बहा दूँ
सोचता हूँ बहा दूँ
सभी मुखौटे नदी में
और देखूं असली रूप
अपने अस्तित्व का
और प्रतिक्रिया संबंधों की.
...कैलाश शर्मा
बहुत बढ़िया सोच है कैलाश जी ! वाकई मुखौटे चढाने के बाद जब खुद अपने लिये ही इंसान अजनबी बन जाये तो ऐसे जीवन का क्या फ़ायदा ! बेहतर यही होगा मुखौटों को नदी में बहा कर एक स्वाभाविक और ईमानदार जीवन को जिया जाये जिसमें कोई भी रिश्ता नकली ना हो ! बहुत सुंदर रचना !
ReplyDeleteरात्रि को जब टांग देता सभी मुखौटे खूंटी पर दिखाई देता आईने में एक अज़नबी चेहरा...............क्या छुपी हुई और सबके द्वारा स्वीकृत होने लिए प्रतीक्षारत् बात कह दी, वाह। प्राय: ऐसे अनुभव चमक के भीतर भरी खोखलाहट को अच्छी तरह अनुभव कर लेने के बाद ही आते हैं।
ReplyDeletebahut gahri soch ...
ReplyDeleteबेहतरीन और लाजवाब........यही संसार की हकीक़त है ।
ReplyDeleteसोचता हूँ बहा दूँ
ReplyDeleteसभी मुखौटे नदी में
और देखूं असली रूप
अपने अस्तित्व का
और प्रतिक्रिया संबंधों की.
काश इतना साहस हम कर पायें।
इतने मुखौटों के बीच अपना चेहरा पहचानना मुश्किल हो जाता है ... और कभी कभी तो इंसान देखना भी नहीं चाहता ... पर ये हिम्मत करनी होगी ... खुद ही ...
ReplyDeleteगहन भाव लिये ... अनुपम अभिव्यक्ति
ReplyDeleteसादर
वाह.बहुत उम्दा प्रस्तुति .बेहतरीन
ReplyDeleteआज मुखौटों की दुनिया हो गयी है महोदय,चेहरा पहचानना मुशिकल हो गया है.बहुत ही सुन्दर और सार्थक प्रस्तुति.
ReplyDeleteअपने को पहचान लेना चाहता है मन।
ReplyDeleteमुखौटे हमने भी रख लिए थे
ReplyDeleteवक़्त पर पहन लूँगी - ये सोचकर
पर जब भी हाथ बढ़ाया
आत्मा ने धिक्कारा
फिर ..... बनते रहे बेवकूफ जी भर के
लाज़वाब अभिव्यक्ति...आभार
Deleteकि खुशबु आ नहीं सकती बनावट के फूलों से......
ReplyDeleteसच्ची रूह मुखौटे के भीतर से झाँक ही लेती है...
बेहतरीन भाव.
सादर
अनु
bahut khoob...
ReplyDeleteaise hi kuch vichar "Ek chehre mein kai chehre chupaate hain log" http://www.poeticprakash.com/2012/07/blog-post_08.html
आज अधिकतर लोग नकली मुखौटा लगाकर ही जी रहे है ,,
ReplyDeleteRecent post: ओ प्यारी लली,
सच कहा आपने आत्मा पर बोझ डालते हैं ये मुखौटे
ReplyDeleteअज़नबी चेहरा से बचा नहीं जा सकता है ... बहुत सुन्दर रचना..
ReplyDeleteबहुत सही लिखा है, बहुत सुन्दर रचना..
ReplyDeleteशायद हम सबको ये मुखौटे पहन कर घूमना पड़ता है ताउम्र बहुरूपिया बनकर. बहुत सुन्दर.
ReplyDeleteसोचता हूँ बहा दूँ
ReplyDeleteसभी मुखौटे नदी में
और देखूं असली रूप
अपने अस्तित्व का
और प्रतिक्रिया संबंधों की.... विचारों को उद्द्वेलित करती रचना.. बहुत खूब .. पर प्रश्न उठता है कि .. क्या संभव है इन मुखौटों के बिना रह पाना इस संसार में ??
बेहतरीन अभिव्यक्ति कैलाश भाई | मुझे अपनी लिखी एक पुरानी रचना याद दिला दी आपने | आभार
ReplyDeleteकभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
Tamasha-E-Zindagi
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मुखौटा तो आत्मा पर एक बोझ है जिसे उतर फेकना जरुरी भी है.. सार्थक रचना !!
ReplyDeleteसच कहा आपने ये मुखौटे आत्मा पर बोझ डालते हैं..बहुत सुन्दर सार्थक रचना..
ReplyDeleteकई बार मुखोटे लोगों को सांत्वना भी दे देते है ....
ReplyDeleteSarthak rachna ..
ReplyDeleteआपकी यह रचना 31-05-2013 को http://blogprasaran.blogspot.in पर लिंक की गई है कृपया पधारें.
ReplyDeleteलाजवाब कैलाश जी
ReplyDeleteवाकई जाने कितने मुखौटे हम रोज बदलते हैं
मुखोटे और उनके पीछे छुपी कटुता और शैतानियाँ. आवश्यकता है इनसे बचे रहने की. सुंदर भाव सुंदर कविता.
ReplyDeleteबहुत ही सार्थक रचना ...
ReplyDeleteदिखाई देता आईने में
ReplyDeleteएक अज़नबी चेहरा
और ढूँढता अपना अस्तित्व
मुखौटों की भीड़ में.
हम खुद को ही नहीं पहचान पाते इन मुखौटों की भीड़ में ॥सटीक और सार्थक रचना
bahut hi khoobsurat rachna sir! kayi baar yahi aabhas hua hai zindagi ke baare mein aur aapne yahan ise shabdon mein bakhoobi vyakt kiya hai.
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