Wednesday, May 29, 2013

तलाश अस्तित्व की


जो भी मिला जीवन में
चढ़ाये था एक मुखौटा
अपने चेहरे पर,
हो गया मज़बूर मैं भी
समय के साथ चलने,
चढ़ा लिए मुखौटे
अपने चेहरे पर.

तंग आ गया हूँ
बदलते हर पल
एक नया मुखौटा
हर सम्बन्ध, हर रिश्ते को.
रात्रि को जब
टांग देता सभी मुखौटे
खूंटी पर,
दिखाई देता आईने में
एक अज़नबी चेहरा
और ढूँढता अपना अस्तित्व
मुखौटों की भीड़ में.

सोचता हूँ बहा दूँ
सभी मुखौटे नदी में
और देखूं असली रूप
अपने अस्तित्व का
और प्रतिक्रिया संबंधों की.

...कैलाश शर्मा 

31 comments:

  1. बहुत बढ़िया सोच है कैलाश जी ! वाकई मुखौटे चढाने के बाद जब खुद अपने लिये ही इंसान अजनबी बन जाये तो ऐसे जीवन का क्या फ़ायदा ! बेहतर यही होगा मुखौटों को नदी में बहा कर एक स्वाभाविक और ईमानदार जीवन को जिया जाये जिसमें कोई भी रिश्ता नकली ना हो ! बहुत सुंदर रचना !

    ReplyDelete
  2. रात्रि को जब टांग देता सभी मुखौटे खूंटी पर दिखाई देता आईने में एक अज़नबी चेहरा...............क्‍या छुपी हुई और सबके द्वारा स्‍वीकृत होने लिए प्रतीक्षारत् बात कह दी, वाह। प्राय: ऐसे अनुभव चमक के भीतर भरी खोखलाहट को अच्‍छी तरह अनुभव कर लेने के बाद ही आते हैं।

    ReplyDelete
  3. बेहतरीन और लाजवाब........यही संसार की हकीक़त है ।

    ReplyDelete
  4. सोचता हूँ बहा दूँ
    सभी मुखौटे नदी में
    और देखूं असली रूप
    अपने अस्तित्व का
    और प्रतिक्रिया संबंधों की.

    काश इतना साहस हम कर पायें।

    ReplyDelete
  5. इतने मुखौटों के बीच अपना चेहरा पहचानना मुश्किल हो जाता है ... और कभी कभी तो इंसान देखना भी नहीं चाहता ... पर ये हिम्मत करनी होगी ... खुद ही ...

    ReplyDelete
  6. गहन भाव लिये ... अनुपम अभिव्‍यक्ति

    सादर

    ReplyDelete
  7. वाह.बहुत उम्दा प्रस्तुति .बेहतरीन

    ReplyDelete
  8. आज मुखौटों की दुनिया हो गयी है महोदय,चेहरा पहचानना मुशिकल हो गया है.बहुत ही सुन्दर और सार्थक प्रस्तुति.

    ReplyDelete
  9. अपने को पहचान लेना चाहता है मन।

    ReplyDelete
  10. मुखौटे हमने भी रख लिए थे
    वक़्त पर पहन लूँगी - ये सोचकर
    पर जब भी हाथ बढ़ाया
    आत्मा ने धिक्कारा
    फिर ..... बनते रहे बेवकूफ जी भर के

    ReplyDelete
    Replies
    1. लाज़वाब अभिव्यक्ति...आभार

      Delete
  11. कि खुशबु आ नहीं सकती बनावट के फूलों से......

    सच्ची रूह मुखौटे के भीतर से झाँक ही लेती है...

    बेहतरीन भाव.
    सादर
    अनु

    ReplyDelete
  12. bahut khoob...
    aise hi kuch vichar "Ek chehre mein kai chehre chupaate hain log" http://www.poeticprakash.com/2012/07/blog-post_08.html

    ReplyDelete
  13. आज अधिकतर लोग नकली मुखौटा लगाकर ही जी रहे है ,,

    Recent post: ओ प्यारी लली,

    ReplyDelete
  14. सच कहा आपने आत्मा पर बोझ डालते हैं ये मुखौटे

    ReplyDelete
  15. अज़नबी चेहरा से बचा नहीं जा सकता है ... बहुत सुन्दर रचना..

    ReplyDelete
  16. बहुत सही लिखा है, बहुत सुन्दर रचना..

    ReplyDelete
  17. शायद हम सबको ये मुखौटे पहन कर घूमना पड़ता है ताउम्र बहुरूपिया बनकर. बहुत सुन्दर.

    ReplyDelete
  18. सोचता हूँ बहा दूँ
    सभी मुखौटे नदी में
    और देखूं असली रूप
    अपने अस्तित्व का
    और प्रतिक्रिया संबंधों की.... विचारों को उद्द्वेलित करती रचना.. बहुत खूब .. पर प्रश्न उठता है कि .. क्या संभव है इन मुखौटों के बिना रह पाना इस संसार में ??

    ReplyDelete
  19. बेहतरीन अभिव्यक्ति कैलाश भाई | मुझे अपनी लिखी एक पुरानी रचना याद दिला दी आपने | आभार

    कभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
    Tamasha-E-Zindagi
    Tamashaezindagi FB Page

    ReplyDelete
  20. मुखौटा तो आत्मा पर एक बोझ है जिसे उतर फेकना जरुरी भी है.. सार्थक रचना !!

    ReplyDelete
  21. सच कहा आपने ये मुखौटे आत्मा पर बोझ डालते हैं..बहुत सुन्दर सार्थक रचना..

    ReplyDelete
  22. कई बार मुखोटे लोगों को सांत्वना भी दे देते है ....

    ReplyDelete
  23. आपकी यह रचना 31-05-2013 को http://blogprasaran.blogspot.in पर लिंक की गई है कृपया पधारें.

    ReplyDelete
  24. लाजवाब कैलाश जी
    वाकई जाने कितने मुखौटे हम रोज बदलते हैं

    ReplyDelete
  25. मुखोटे और उनके पीछे छुपी कटुता और शैतानियाँ. आवश्यकता है इनसे बचे रहने की. सुंदर भाव सुंदर कविता.

    ReplyDelete
  26. बहुत ही सार्थक रचना ...

    ReplyDelete
  27. दिखाई देता आईने में
    एक अज़नबी चेहरा
    और ढूँढता अपना अस्तित्व
    मुखौटों की भीड़ में.

    हम खुद को ही नहीं पहचान पाते इन मुखौटों की भीड़ में ॥सटीक और सार्थक रचना

    ReplyDelete
  28. bahut hi khoobsurat rachna sir! kayi baar yahi aabhas hua hai zindagi ke baare mein aur aapne yahan ise shabdon mein bakhoobi vyakt kiya hai.

    ReplyDelete