Monday, May 29, 2017
दर्द बिन ज़िंदगी नहीं होती
लेबल:
Kashish-My Poetry,
अगज़ल,
कैलाश शर्मा,
चाँद,
ज़िंदगी,
दर्द,
दवा,
नींद,
बाशिंदा
Tuesday, April 18, 2017
क्षणिकाएं
(1)
चहरे पर
जीवन के
उलझी पगडंडियां
उलझा कर रख देतीं
जीवन के हर पल को,
जीवन की संध्या में
झुर्रियों की गहराई में
ढूँढता हूँ वह पल
जो छोड़ गये निशानी
बन कर पगडंडी चहरे पर।
उलझी पगडंडियां
उलझा कर रख देतीं
जीवन के हर पल को,
जीवन की संध्या में
झुर्रियों की गहराई में
ढूँढता हूँ वह पल
जो छोड़ गये निशानी
बन कर पगडंडी चहरे पर।
(2)
होता
नहीं विस्मृत
छोड़ा था हाथ
ज़िंदगी के
जिस मोड़ पर।
छोड़ा था हाथ
ज़िंदगी के
जिस मोड़ पर।
ठहरा है
यादों का कारवां
आज भी उसी मोड़ पर,
शायद देने को साथ
मेरे प्रायश्चित में
थम गया है वक़्त भी
उसी मोड़ पर।
आज भी उसी मोड़ पर,
शायद देने को साथ
मेरे प्रायश्चित में
थम गया है वक़्त भी
उसी मोड़ पर।
(3)
आसान कहाँ हटा
देना
तस्वीर दीवार से
पुराने कैलेंडर की तरह,
टांग देते नयी तस्वीर
पुरानी ज़गह पर,
लेकिन रह जाती
खाली जगह तस्वीर के पीछे
दिलाने याद उम्र भर।
तस्वीर दीवार से
पुराने कैलेंडर की तरह,
टांग देते नयी तस्वीर
पुरानी ज़गह पर,
लेकिन रह जाती
खाली जगह तस्वीर के पीछे
दिलाने याद उम्र भर।
...©कैलाश शर्मा
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कैलाश शर्मा,
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जीवन,
झुर्रियां,
तस्वीर,
दीवार,
पगडंडियां,
मोड़,
वक़्त
Sunday, March 12, 2017
दुख दर्द दहन हो होली में
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कैलाश शर्मा,
गुलाल,
तन,
पिया,
मन,
रंग,
होली
Tuesday, March 07, 2017
बेटी
आँगन है चहचहाता, जब होती बेटियां,
गुलशन है महक जाता, जब होती बेटियां।
गुलशन है महक जाता, जब होती बेटियां।
आकर के थके मांदे, घर
में क़दम रखते,
हो जाती थकन गायब, जब होती बेटियां।
हो जाती थकन गायब, जब होती बेटियां।
रोशन है रात करतीं, जुगनू सी चमक के,
जीने की लगन देती, जब होती बेटियां।
जीवन में कुछ न चाहा, बस प्यार बांटती,
दिल में है दर्द होता, गर रोती बेटियां।
जाती हैं दूर घर से, यादें हैं छोड़ कर,
आँखों में ख़ाब बन के, बस सोती बेटियां।
जाती हैं दूर घर से, यादें हैं छोड़ कर,
आँखों में ख़ाब बन के, बस सोती बेटियां।
...©कैलाश शर्मा
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Monday, February 27, 2017
कैसी यह मनहूस डगर है
भूल गयी
गौरैया आँगन,
मूक हुए हैं कोयल के स्वर,
ठूठ हुआ आँगन का बरगद,
नहीं बनाता अब कोई घर।
मूक हुए हैं कोयल के स्वर,
ठूठ हुआ आँगन का बरगद,
नहीं बनाता अब कोई घर।
लगती
नहीं न अब चौपालें,
शोर नहीं बच्चों का होता।
झूलों को अब डाल तरसतीं,
सावन भी अब सूना होता।
शोर नहीं बच्चों का होता।
झूलों को अब डाल तरसतीं,
सावन भी अब सूना होता।
पगडंडी
सुनसान पडी है,
नहीं शहर से कोई आता।
कैसी यह मनहूस डगर है,
नहीं लौटता जो भी जाता।
नहीं शहर से कोई आता।
कैसी यह मनहूस डगर है,
नहीं लौटता जो भी जाता।
कंकरीट
के इस जंगल में,
अपनेपन की छाँव न पायी।
आँखों से कुछ अश्रु ढल गये,
आयी याद थी जब अमराई।
अपनेपन की छाँव न पायी।
आँखों से कुछ अश्रु ढल गये,
आयी याद थी जब अमराई।
पंख कटे
पक्षी के जैसे,
सूने नयन गगन को तकते।
ऐसे फसे जाल में सब हैं,
मुक्ति की है आस न करते।
ऐसे फसे जाल में सब हैं,
मुक्ति की है आस न करते।
...©कैलाश शर्मा
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Tuesday, January 31, 2017
क्षणिकाएं
जीवन की सांझ
एक नयी सोच
एक नया दृष्टिकोण,
एक नया ठहराव
सागर की लहरों का,
एक प्रयास समझने का
जीवन को जीवन की नज़र से।
एक नयी सोच
एक नया दृष्टिकोण,
एक नया ठहराव
सागर की लहरों का,
एक प्रयास समझने का
जीवन को जीवन की नज़र से।
*****
होता है कभी आभास
किसी के साथ होने का
घर के सूनेपन में,
दिखाता है कितने खेल
यह सूनापन
बहलाने को एकाकी मन।
किसी के साथ होने का
घर के सूनेपन में,
दिखाता है कितने खेल
यह सूनापन
बहलाने को एकाकी मन।
*****
ज़िंदगी
एक अधूरी नज़्म,
तलाश कुछ शब्दों की
जो छूट गए पीछे
किसी मोड़ पर।
एक अधूरी नज़्म,
तलाश कुछ शब्दों की
जो छूट गए पीछे
किसी मोड़ पर।
...©कैलाश शर्मा
Thursday, November 24, 2016
समस्याएं अनेक, व्यक्ति केवल एक
समस्याएँ अनेक
उनके रूप अनेक
लेकिन व्यक्ति केवल एक।
नहीं होता स्वतंत्र अस्तित्व
किसी समस्या या दुःख का,
नहीं होती समस्या
कभी सुप्तावस्था में
जब जाग्रत होता 'मैं'
घिर जाता समस्याओं से।
उनके रूप अनेक
लेकिन व्यक्ति केवल एक।
नहीं होता स्वतंत्र अस्तित्व
किसी समस्या या दुःख का,
नहीं होती समस्या
कभी सुप्तावस्था में
जब जाग्रत होता 'मैं'
घिर जाता समस्याओं से।
मेरा 'मैं'
देता एक अस्तित्व
मेरे अहम् को
और कर देता आवृत्त
मेरे स्वत्व को।
मैं भुला देता मेरा स्वत्व
और धारण कर लेता रूप
जो सुझाता मेरा 'मैं'
अपने अहम् की पूर्ती को।
देता एक अस्तित्व
मेरे अहम् को
और कर देता आवृत्त
मेरे स्वत्व को।
मैं भुला देता मेरा स्वत्व
और धारण कर लेता रूप
जो सुझाता मेरा 'मैं'
अपने अहम् की पूर्ती को।
नहीं होती कोई सीमा
अहम् जनित इच्छाओं की,
अधिक पाने की दौड़ देती जन्म
ईर्ष्या, घमंड और अवसाद
और घिर जाते दुखों के भ्रमर में।
अहम् जनित इच्छाओं की,
अधिक पाने की दौड़ देती जन्म
ईर्ष्या, घमंड और अवसाद
और घिर जाते दुखों के भ्रमर में।
'मैं' नहीं है स्वतंत्र शरीर या सोच
जब 'मैं' जुड़ जाता
किसी अस्तित्व से
तो हो जाता आवृत्त अहम् से,
जब हो जाता साक्षात्कार
अहम् विहीन स्वत्व से
हो जाते मुक्त दुखों से
और होती प्राप्त परम शांति।
जब 'मैं' जुड़ जाता
किसी अस्तित्व से
तो हो जाता आवृत्त अहम् से,
जब हो जाता साक्षात्कार
अहम् विहीन स्वत्व से
हो जाते मुक्त दुखों से
और होती प्राप्त परम शांति।
कर्म से नहीं मुक्ति मानव की
लेकिन अहम् रहित कर्म
नहीं है वर्जित 'मैं'.
हे ईश्वर! तुम ही हो कर्ता
मैं केवल एक साधन
और समर्पित सब कर्म तुम्हें
कर देता यह भाव
मुक्त कर्म बंधनों से,
और हो जाता अलोप 'मैं'
और अहम् जनित दुःख।
...©कैलाश शर्मा
लेकिन अहम् रहित कर्म
नहीं है वर्जित 'मैं'.
हे ईश्वर! तुम ही हो कर्ता
मैं केवल एक साधन
और समर्पित सब कर्म तुम्हें
कर देता यह भाव
मुक्त कर्म बंधनों से,
और हो जाता अलोप 'मैं'
और अहम् जनित दुःख।
...©कैलाश शर्मा
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