सारा जीवन गंवा दिया है
प्रश्नों के उत्तर देने में,
बैठें भूल सभी बंधन को,
कुछ प्रश्न अनुत्तरित रहने दें.
सूरज पाने की चाहत में,
शीतलता शशि की बिसरायी,
टूटे तारों से अब क्या मांगें,
अब आस यहीं पर थमने दें.
रिश्ते बने कभी ज़ंजीरें,
यादें बनीं कभी अंगारे,
बंद करें मुट्ठी में कुछ पल,
कल को कल पर ही रहने दें.
तप्त धूप में चलते चलते
सूख गयी जीवन की सरिता,
क्यों ढूंढें छाया तरुवर की
अपनी छाया ही साथी बनने दें.
धोखा खाया जब अपनों से
शिकवा गैरों से क्यों कर हो,
ढूंढें खुशियाँ अपने अन्दर,
जीवन अब निर्झर बहने दें.
.....कैलाश शर्मा
लाजवाब
ReplyDeleteहर पंक्ति सार्थक संदेश देती हुई .... बहुत सुंदर रचना .... जीवन में उतारने लायक कथ्य
ReplyDeleteगहन भाव लिए हुए बहुत सुंदर रचना ...
ReplyDeleteधोखा खाया जब अपनों से
ReplyDeleteशिकवा गैरों से क्यों कर हो,
ढूंढें खुशियाँ अपने अन्दर,
जीवन अब निर्झर बहने दें.
..सच जो अपने होते हैं वही करीब होते हैं और ख़ुशी गम धोखा सभी वही देते रहते हैं ..
जीवन में जो पल ख़ुशी के मिल जायं वही ठीक ..
बहुत बढ़िया चिंतनशील रचना
उत्तर के आगे प्रश्नों का अंत नहीं होता .... बेहतर है कुछ अनुत्तरित रहना - प्रश्नकर्ता की संतुष्टि,उत्तर देनेवाले का सुकून :)
ReplyDeleteतप्त धूप में चलते चलते
ReplyDeleteसूख गयी जीवन की सरिता,
क्यों ढूंढें छाया तरुवर की
अपनी छाया ही साथी बनने दें.
बहुत ही सुंदर एवँ सशक्त रचना ! हर पद अनुपम है !
बंद करें मुट्ठी में कुछ पल,
ReplyDeleteकल को कल पर ही रहने दें.बस इतना ही यदि समझ ले हर इंसान,तो शायद जीना थोड़ा आसान हो जाये सभी के लिए। सार्थक संदेश देती लाजवाब रचना।
धोखा खाया जब अपनों से
ReplyDeleteशिकवा गैरों से क्यों कर हो,
ढूंढें खुशियाँ अपने अन्दर,
जीवन अब निर्झर बहने दें.
ashawadi vichar ....
तप्त धूप में चलते चलते
ReplyDeleteसूख गयी जीवन की सरिता,
क्यों ढूंढें छाया तरुवर की
अपनी छाया ही साथी बनने दें.
.. क्या बात कही है कैलाश जी .. बहुत सुन्दर कविता !
बाऊ जी, नमस्ते!
ReplyDeleteअपने-पराये का भेद मिटा दिया आपने!
ढ़
--
थर्टीन ट्रैवल स्टोरीज़!!!
कुछ प्रश्न तो परीक्षा में भी ऑप्नशल होते हैं -कोई जवाबदेही नहीं जिनकी !
ReplyDeleteबहुत सुन्दर......
ReplyDeleteआपका कहा मान लें तो जीवन सफल/सरल हो जाए.....
सादर
अनु
प्रश्न मन में गहराते रहे,
ReplyDeleteहम हाथ लहराते रहे,
हद की धड़कन न सुनी,
सबका आलाप गाते रहे।
अपना सब कुछ लुटा के..होश में आये
ReplyDeleteआज की नई पीढ़ी के लिए .....??
बधाई!
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
ReplyDeleteआपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा कल शुक्रवार (14-06-2013) के "मौसम आयेंगें.... मौसम जायेंगें...." (चर्चा मंचःअंक-1275) पर भी होगी!
सादर...!
रविकर जी अभी व्यस्त हैं, इसलिए मंगलवार की चर्चा मैंने ही लगाई है।
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आभार...
Deleteधोखा खाया जब अपनों से
ReplyDeleteशिकवा गैरों से क्यों कर हो,
ढूंढें खुशियाँ अपने अन्दर,
जीवन अब निर्झर बहने दें.
बहुत सुन्दर, बहुत बधाई...
ढूंढें खुशियाँ अपने अन्दर,
ReplyDeleteजीवन अब निर्झर बहने दें.
सार्थक सम्बोधन!!
तप्त धूप में चलते चलते
ReplyDeleteसूख गयी जीवन की सरिता,
क्यों ढूंढें छाया तरुवर की
अपनी छाया ही साथी बनने दें.
लाजवाब रचना
सभी पंक्तियाँ अर्थपूर्ण बहुर दुन्दर प्रस्तुति !
ReplyDeletelatest post: प्रेम- पहेली
LATEST POST जन्म ,मृत्यु और मोक्ष !
बहुत ही सुन्दर रचना..
ReplyDeleteलाजवाब
:-)
बड़ी मधुर रचना है भाई जी !
ReplyDeleteबधाई !!
धोखा खाया जब अपनों से
ReplyDeleteशिकवा गैरों से क्यों कर हो,
ढूंढें खुशियाँ अपने अन्दर,
जीवन अब निर्झर बहने दें.
बहुत ही सुंदर भाव, जीवन का यही दर्शन सर्वोत्तम हैं, बहुत शुभकामनाएं.
रामराम.
धोखा खाया जब अपनों से
ReplyDeleteशिकवा गैरों से क्यों कर हो,
ढूंढें खुशियाँ अपने अन्दर,
जीवन अब निर्झर बहने दें.
बहुत ही सुंदर भाव, जीवन का यही दर्शन सर्वोत्तम हैं, बहुत शुभकामनाएं.
रामराम.
आपकी यह सुन्दर रचना शनिवार 15.06.2013 को निर्झर टाइम्स (http://nirjhar-times.blogspot.in) पर लिंक की गयी है! कृपया इसे देखें और अपने सुझाव दें।
ReplyDeleteआभार....
Deleteआभार....
ReplyDeleteआभार...
ReplyDeleteधोखा खाया जब अपनों से
ReplyDeleteशिकवा गैरों से क्यों कर हो,
ढूंढें खुशियाँ अपने अन्दर,
जीवन अब निर्झर बहने दें.
अब हर कदम पर जीवन का सत्य यही रह गया है . इसलिए कुछ भूले रहकर से जिया जा सकता है .
वाह.......अति सुन्दर ।
ReplyDeleteकुछ सवाल अनुतरित्त ही रहते हैं .....और आपकी रचना का भी कोई जवाब नहीं , बहुत सुन्दर
ReplyDeleteकुछ प्रश्नों के अनुत्तरित रहने पर ही उनकी सार्थकता रहती है.
ReplyDeleteबहुत सुंदर प्रस्तुति.