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Tuesday, November 03, 2015

क्षणिकाएं

उबलते रहे अश्क़
दर्द की कढ़ाई में,
सुलगते रहे स्वप्न
भीगी लकड़ियों से,
धुआं धुआं होती ज़िंदगी
तलाश में एक सुबह की
छुपाने को अपना अस्तित्व
भोर के कुहासे में।

*****

होते हैं कुछ प्रश्न
नहीं जिनके उत्तर,
हैं कुछ रास्ते 
नहीं जिनकी कोई मंजिल,
भटक रहा हूँ 
ज़िंदगी के रेगिस्तान में
एक पल सुकून की तलाश में, 
खो जायेगा वज़ूद
यहीं कहीं रेत में।

...©कैलाश शर्मा

Thursday, June 20, 2013

एक प्रश्न

अंतराल
जीवन और मृत्यु का
क्यों होता
कभी सुख दायक
कभी पीड़ा से भरा,
क्यों मिलता है कभी दुःख
करने पर सत्कर्म भी
और जो लीन पाप कर्म में
क्यों पाते वे सुख समृद्धि.

मानता हूँ प्रभु,
कर्म पर ही है मेरा अधिकार
और मेरे ही कर्म
होकर लिप्त आत्मा में
करते प्रवेश नव शरीर में
पुनर्जन्म पर,
और पाता है मानव
सुख दुःख
पूर्वजन्म कर्मानुसार.

अनभिज्ञ पूर्वजन्म कर्मों से
जब पाते हैं कष्ट इस जन्म में
देते हैं दोष
भगवान, भाग्य या हालात को.
प्रभु! काश बदल देते ये नियम
मिल जाता उसी जन्म में
शुभ या अशुभ कर्मों का फल,
नहीं ढ़ोना होता बोझ कर्मों का
अगले जन्मों तक,
और प्रारंभ करते नवजीवन
कर्मों की स्वच्छ स्लेट से.

या कर देते संलिप्त आत्मा में  
कर्मों के साथ उनकी स्मृति भी
नव जन्म लेने पर,
जिससे न होती शिकायत
तुम से, हालात से या भाग्य से,
भिज्ञ हो जाते कारणों से
सुख दुःख के जीवन में.

कितना कठिन होता है
भोगना कर्म फल
होकर अनभिज्ञ कारणों से.


.....कैलाश शर्मा 

Thursday, June 13, 2013

कुछ प्रश्न अनुत्तरित रहने दें

सारा जीवन गंवा दिया है
प्रश्नों के उत्तर देने में,
बैठें भूल सभी बंधन को,
कुछ प्रश्न अनुत्तरित रहने दें.

सूरज पाने की चाहत में,
शीतलता शशि की बिसरायी,
टूटे तारों से अब क्या मांगें,
अब आस यहीं पर थमने दें.

रिश्ते बने कभी ज़ंजीरें,
यादें बनीं कभी अंगारे,
बंद करें मुट्ठी में कुछ पल,
कल को कल पर ही रहने दें.

तप्त धूप में चलते चलते
सूख गयी जीवन की सरिता,
क्यों ढूंढें छाया तरुवर की
अपनी छाया ही साथी बनने दें.

धोखा खाया जब अपनों से
शिकवा गैरों से क्यों कर हो,
ढूंढें खुशियाँ अपने अन्दर,
जीवन अब निर्झर बहने दें. 


.....कैलाश शर्मा