Friday, June 01, 2012

पोटली

आए थे जब 
खाली थे हाथ
न बोझ कोई 
कन्धों पर.


ज़िंदगी की राह में 
सभी की खुशी
और चाहतें करने पूरी
बढ़ाते रहे बोझ
कंधे की पोटली का.
नहीं महसूस हुआ भार
इस आशा में 
कि कर लेंगे साझा
सब कंधे 
भार इस पोटली का.


लेकिन आज 
इस सुनसान अकेलेपन में
जब दिखाई नहीं देता
कोई कंधा आस पास,
महसूस होता है 
और भी भारी
पोटली का भार 
कमजोर झुके कन्धों पर.


उठाना होता है
अपनी पोटली का भार
अपने ही कन्धों पर.
नहीं है अब दस्तूर
जीते जी 
बांटने का बोझ
झुके कमजोर कन्धों से,
और झटक देते हैं 
रखने पर हाथ कंधे पर
अपने भी.
लेकिन मरने पर 
उठा लेते हैं भार
कंधे गैरों के भी.


कैलाश शर्मा

33 comments:

  1. आए थे जब
    खाली थे हाथ
    न बोझ कोई
    कन्धों पर.

    kya baat sir bahut khub

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  2. यही जीवन
    सुलगता रहता
    सोचता मन


    सादर

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    1. बहुत सुन्दर और सार्थक हाइकु....आभार

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  3. अनुपम भाव संयोजन लिए उत्‍कृष्‍ट लेखन .. आभार

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  4. और झटक देते हैं
    रखने पर हाथ कंधे पर
    अपने भी.
    लेकिन मरने पर
    उठा लेते हैं भार
    कंधे गैरों के भी.

    मार्मिक और सत्य से परिपूर्ण ये पोस्ट लाजवाब है ।

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  5. bahut badhiya kvita.. jiwan aur bojh ka sahi visheleshan

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  6. बहुत बढ़िया सर!

    सादर

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  7. और झटक देते हैं
    रखने पर हाथ कंधे पर
    अपने भी.
    लेकिन मरने पर
    उठा लेते हैं भार
    कंधे गैरों के भी.

    जीते जी नहीं मिलता कंधा .... बहुत संवेदनशील रचना

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  8. उफ़ कितना बडा सच लिख दिया

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  9. पोटली का बोझ
    तो उठा लेंगे ये कंधे,
    पर अपनों की उपेक्षा
    है सबसे बड़ा भार
    यही जीवन की हार ||

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    1. बहुत सुन्दर और सटीक टिप्पणी....आभार

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  10. संवेदनशील रचना.....

    सादर.

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  11. ्सच यही है जिन्दगी..,, एक,मार्मिक सत्य!

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  12. जीवन और मरण का यही सच है
    बखूबी दर्शाया है आपने

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  13. संवेदनशील रचना,एक,मार्मिक सत्य........

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  14. सशक्त और प्रभावशाली प्रस्तुती....

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  15. झूलते कंधों को छोड़ने वाले भूल जाते हैं कि उनके कंधे भी झूलेंगे एक दिन।

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  16. महसूस होता है
    और भी भारी
    पोटली का भार
    कमजोर झुके कन्धों पर.]
    ,,,,,,,,,,,बहुत ही संवेदनशील रचना कैलाश जी

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  17. झुके कमजोर कन्धों से,
    और झटक देते हैं
    रखने पर हाथ कंधे पर
    अपने भी.
    लेकिन मरने पर
    उठा लेते हैं भार
    कंधे गैरों के भी.

    जीवन के सत्य को उजागर करती आपकी यह कविता बहुत ही अच्छी लगी । मेरे पोस्ट पर आपका स्वागत रहेगा । धन्यवाद ।

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  18. ईश्वर न करे किसी का वार्धक्य किसी की बेबसी बने.. जाना तो होता ही है.. लेकिन शांति हो, स्निग्ध स्नेह प्रेम हो.. चिर निद्रा से पहले...
    सार्थक अभिव्यक्ति,
    सादर

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  19. जीने में भी डर , मरने में भी डर ...

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  20. लेकिन आज
    इस सुनसान अकेलेपन में
    जब दिखाई नहीं देता
    कोई कंधा आस पास,
    महसूस होता है
    और भी भारी
    पोटली का भार
    कमजोर झुके कन्धों पर....................जीवन का सत्य लिख दिया आपने ...जीवन में ये पल अपने साथ हर कोई महसूस करता हैं ...चाहे वो पल २...४ ही क्यों ना हो .....बहुत बढिया शब्द रचना

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  21. गहन विचारों से पूर्ण सारगर्भित पोस्ट |
    आशा

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  22. साँसों की इस पोटली कों ती खुद ही उठाना होता है ... और जीवन भर उठाना होता है ...
    जीवन का सत्य भी है की गैर मरने के बाद कुछ पल ही सही उठा लेते हैं ये भार ... उनको पता है की ये उम्र भर का भार नहीं ...

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  23. एक न बदलने वाले सत्य का सुन्दर विवरण
    ....
    और झटक देते हैं
    रखने पर हाथ कंधे पर
    अपने भी.
    लेकिन मरने पर
    उठा लेते हैं भार
    कंधे गैरों के भी.

    आप बुज़ुर्गों के ब्लोग पे आकर बच्चों को बहुत कुछ सीखने को मिल जाता है
    आभार

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  24. जीवन संध्या का सत्य दिखाती संवेदनशील एवं मार्मिक रचना ....
    आभार !!

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  25. नहीं है अब दस्तूर
    जीते जी
    बांटने का बोझ
    झुके कमजोर कन्धों से,
    और झटक देते हैं
    रखने पर हाथ कंधे पर
    अपने भी.

    जीवन की सच्चाई को अभिव्यक्त करती एक अच्छी कविता।

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  26. झटक देते हैं
    रखने पर हाथ कंधे पर
    अपने भी.

    कडवा सच । अपनी अपनी पोटली खुद ही उठानी है, इसे जितनी हल्की रखें उतना अच्छा .

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  27. बेहतरीन बहुत सुन्दर
    (अरुन =arunsblog.in)

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