तृतीय अध्याय
(कर्म-योग - ३.८-१५)
नियत कर्म है उसे करो तुम,
कर्म श्रेष्ठ, अकर्म से अर्जुन.
बिना कर्म तो नहीं है संभव
इस शरीर का पालन पोषण.
बांधे वह कर्मों से जन को
कर्म नहीं जो यज्ञ निमित्त.
हो आसक्ति मुक्त कौन्तेय,
कर्म करो तुम यज्ञ निमित्त.
यज्ञ सहित प्राणी रच करके
प्रजापति यह वचन उचारे.
हो वृद्धि इस यज्ञ के द्वारा,
इष्ट काम हों पूर्ण तुम्हारे.
करो तृप्त देवों को यज्ञ से,
देव तुम्हें भी तृप्त करेंगे.
एक दूसरे के संवर्धन से,
स्व अभीष्ट को प्राप्त करेंगे.
होकर तृप्त यज्ञ से देवा,
मनचाहे सुख को हैं देते.
चोर कहाते जग में वे जन,
बिना यज्ञ के भोग हैं करते.
यज्ञ शेष अन्न खाकर के
सज्जन पाप मुक्त हो जाते.
दुष्ट पकायें खुद खाने को,
वे हैं केवल पाप ही खाते.
अन्न से होते हैं सब प्राणी,
वर्षा से है अन्न उपजता.
होती वृष्टि यज्ञ करने से,
यज्ञ कर्म से पैदा होता.
यज्ञ कर्म ब्रह्म से पैदा,
अक्षर ब्रह्म जनक वेदों का.
अक्षर ब्रह्म सर्व व्यापी है,
सदा यज्ञ में वास है उसका.
.......क्रमशः
कैलाश शर्मा
नियत कर्म है उसे करो तुम,
कर्म श्रेष्ठ, अकर्म से अर्जुन.
बिना कर्म तो नहीं है संभव
इस शरीर का पालन पोषण.
बांधे वह कर्मों से जन को
कर्म नहीं जो यज्ञ निमित्त.
हो आसक्ति मुक्त कौन्तेय,
कर्म करो तुम यज्ञ निमित्त.
यज्ञ सहित प्राणी रच करके
प्रजापति यह वचन उचारे.
हो वृद्धि इस यज्ञ के द्वारा,
इष्ट काम हों पूर्ण तुम्हारे.
करो तृप्त देवों को यज्ञ से,
देव तुम्हें भी तृप्त करेंगे.
एक दूसरे के संवर्धन से,
स्व अभीष्ट को प्राप्त करेंगे.
होकर तृप्त यज्ञ से देवा,
मनचाहे सुख को हैं देते.
चोर कहाते जग में वे जन,
बिना यज्ञ के भोग हैं करते.
यज्ञ शेष अन्न खाकर के
सज्जन पाप मुक्त हो जाते.
दुष्ट पकायें खुद खाने को,
वे हैं केवल पाप ही खाते.
अन्न से होते हैं सब प्राणी,
वर्षा से है अन्न उपजता.
होती वृष्टि यज्ञ करने से,
यज्ञ कर्म से पैदा होता.
यज्ञ कर्म ब्रह्म से पैदा,
अक्षर ब्रह्म जनक वेदों का.
अक्षर ब्रह्म सर्व व्यापी है,
सदा यज्ञ में वास है उसका.
.......क्रमशः
कैलाश शर्मा
गहन भाव लिए उत्कृष्ट लेखन ... आभार ।
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर .....शानदार प्रस्तुति....
ReplyDeleteबेहतरीन गहन अभिव्यक्ति की उत्कृष्ट रचना,,,,, ,
ReplyDeleteMY RECENT POST,,,,काव्यान्जलि ...: ब्याह रचाने के लिये,,,,,
नियत कर्म है उसे करो तुम,
ReplyDeleteकर्म श्रेष्ठ, अकर्म से अर्जुन.
बिना कर्म तो नहीं है संभव
इस शरीर का पालन पोषण.
दिल हर दम लुब डुब करता है भरे ,फेफड़े सांस हवा की....
कर्म गति है इस जीवन की ,कर्म नियति है ,इस जीवन की ..
sir
ReplyDeletebahut hi gahanta ke saath rach gai aapki ye prerak prastuti bahut bahut hi achhi lagi
hardik badhai
यज्ञ कर्म ब्रह्म से पैदा,
ReplyDeleteअक्षर ब्रह्म जनक वेदों का.
अक्षर ब्रह्म सर्व व्यापी है,
सदा यज्ञ में वास है उसका.....बहुत ही अनुपम कृति आभार
बहुत सुन्दर है
ReplyDeleteअमृत बरस रहा है..
ReplyDeleteकर्म-महिमा बताई है अर्जुन को !
ReplyDeleteHameshaki tarah behtareen!
ReplyDeleteदुष्ट पकायें खुद खाने को,
ReplyDeleteवे हैं केवल पाप ही खाते.
....bilkul satya kaha hai ji
"करो तृप्त देवों को यज्ञ से,
ReplyDeleteदेव तुम्हें भी तृप्त करेंगे.
एक दूसरे के संवर्धन से,
स्व अभीष्ट को प्राप्त करेंगे."
सुंदर संदेश देती श्रेष्ठ पंक्तियाँ। बधाई !
मेरे ब्लॉग का link - www.sushilashivran.blogspot.in
आपका इंतज़ार है मेरे ब्लॉग पर !
बहुत सुंदर...
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर बात कही है आपने...
ReplyDeleteकर्म से ही आदमी महान बनता है....
प्रेरनादायी बेहतरीन रचना...
सुंदर गीता ज्ञान...बहुत बहुत आभार !
ReplyDeleteबहुत सारगर्भित श्रृंखला चल रही है...कर्म की प्रधानता...उत्कृष्ट लेखन !!
ReplyDeleteबहुत सुंदर, धन्यवाद!
ReplyDeleteबहोत सुंदर और शब्दों की रचना कमाल की है
ReplyDeleteहिन्दी दुनिया ब्लॉग (नया ब्लॉग)