तृतीय अध्याय
(कर्म-योग - ३.२५-३५)
अविद्वान व्यक्ति हे भारत!
होकर आसक्त कर्म हैं करते.
अनासक्त लोक संग्रह को
विद्वत जन हैं कर्म वो करते.
अज्ञानी आसक्त कर्म में,
ज्ञानी करें न उनको विचलित.
है कर्तव्य विद्वान जनों का
करें अन्य को कर्मों में प्रेरित.
प्रकृतिजन्य गुणों के कारण
है जन सब कर्मों को कर्ता.
अविद्वान व्यक्ति हे भारत!
होकर आसक्त कर्म हैं करते.
अनासक्त लोक संग्रह को
विद्वत जन हैं कर्म वो करते.
अज्ञानी आसक्त कर्म में,
ज्ञानी करें न उनको विचलित.
है कर्तव्य विद्वान जनों का
करें अन्य को कर्मों में प्रेरित.
प्रकृतिजन्य गुणों के कारण
है जन सब कर्मों को कर्ता.
मूढ़ अहंकारी यह समझें
वह ही सब कर्मों का कर्ता.
त्रिगुण व तदनुसार कर्म का
त्रिगुण व तदनुसार कर्म का
अर्जुन जो है मर्म जानता.
गुणानुरूप गुण कर्म दिखाते,
वह आसक्त कर्म न बनता.
प्रकृति गुणों के कारण मोहित
प्रकृति गुणों के कारण मोहित
गुणकर्मों में आसक्त हैं जन जो.
मूढ़ मति कुछ अंश के ज्ञानी,
विचलित सर्वज्ञ करें न उनको.
कर मुझमें सब कर्म समर्पित,
कर मुझमें सब कर्म समर्पित,
चित्त आत्मा में स्थिर कर.
युद्ध करो संताप रहित तुम,
ममता और कामना तजकर.
श्रद्धायुक्त बिना संशय के
मेरे इस मत का पालन करते.
वे जन सदा जगत में अर्जुन,
मुक्त कर्म बंधन से रहते.
द्वेष भाव से प्रेरित होकर
द्वेष भाव से प्रेरित होकर
मेरे मत को नहीं अनुसरते.
होकर भी सर्वज्ञ, मूर्ख वे,
स्वविनाश की ओर हैं बढ़ते.
अपनी अपनी प्रकृति के जैसा
अपनी अपनी प्रकृति के जैसा
विद्वत जन भी कर्म हैं करते.
इन्द्रिय निग्रह क्या कर सकता
जैसी प्रकृति, कर्म सब करते.
सभी इन्द्रियों के विषयों में,
सभी इन्द्रियों के विषयों में,
अपने अपने राग द्वेष हैं.
इनके वश में नहीं मनुज हो,
दोनों उसके परम शत्रु हैं.
हो गुणरहित स्वधर्म चाहे भी,
पर धर्म से श्रेष्ठ वह होता.
मृत्यु श्रेष्ठ भी है स्वधर्म में,
परधर्म सदा भयावह होता.
......क्रमशः
कैलाश शर्मा
कैलाश शर्मा
हो गुणरहित स्वधर्म चाहे भी,
ReplyDeleteपर धर्म से श्रेष्ठ वह होता.
मृत्यु श्रेष्ठ भी है स्वधर्म में,
परधर्म सदा भयावह होता.
बहुत बेहतरीन सुंदर श्रंखला ,,,,,
RECENT POST ,,,,फुहार....: न जाने क्यों,
...बहुत बढ़िया !
ReplyDeleteहो गुणरहित स्वधर्म चाहे भी,
ReplyDeleteपर धर्म से श्रेष्ठ वह होता.
मृत्यु श्रेष्ठ भी है स्वधर्म में,
परधर्म सदा भयावह होता.
बेहतरीन प्रस्तुति ... आभार
हो गुणरहित स्वधर्म चाहे भी,
ReplyDeleteपर धर्म से श्रेष्ठ वह होता.
मृत्यु श्रेष्ठ भी है स्वधर्म में,
परधर्म सदा भयावह होता.
बहुत खूबसूरत ………
बहुत सुन्दर.....
ReplyDeleteआभार आपका.
अपनी अपनी प्रकृति के जैसा
ReplyDeleteविद्वत जन भी कर्म हैं करते.
इन्द्रिय निग्रह क्या कर सकता
जैसी प्रकृति, कर्म सब करते.
saarthak ....bahut sundar rachnaa ...
ये श्रंखला मैंने देर से पढनी शुरू की... बहुत सुन्दर प्रयास. बेहद प्रभावशाली !!
ReplyDeleteशुभकामनाएं.
मृत्यु श्रेष्ठ भी है स्वधर्म में,
ReplyDeleteपरधर्म सदा भयावह होता.
.........बेहतरीन प्रस्तुति !
अपने को सब कर्ता समझें...वाह...
ReplyDeleteप्रकृतिजन्य गुणों के कारण
ReplyDeleteहै जन सब कर्मों को कर्ता.
मूढ़ अहंकारी यह समझें
वह ही सब कर्मों का कर्ता.
. अच्छी प्रस्तुति .कृपया यहाँ भी पधारें -
बुधवार, 20 जून 2012
क्या गड़बड़ है साहब चीनी में
क्या गड़बड़ है साहब चीनी में
http://veerubhai1947.blogspot.in/
श्रद्धायुक्त बिना संशय के
ReplyDeleteमेरे इस मत का पालन करते.
वे जन सदा जगत में अर्जुन,
मुक्त कर्म बंधन से रहते.
श्रद्धा की महिमा को बताती सुंदर पंक्तियाँ !
बहुत सुन्दर पद्यानुवाद!
ReplyDeleteइसको साझा करने के लिए आभार!
सुंदर रचना एवं अभिव्यक्ति "सैलानी की कलम से" ब्लॉग पर आपकी प्रतिक्रिया की प्रतिक्षा है।
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