द्वितीय अध्याय
(सांख्य योग - २.११-१५)
श्री कृष्ण भगवान :
नहीं शोक करने के लायक,
उन बांधव का शोक हो करते.
जीवित या मृत हो कोई जन,
पंडित उनका शोक न करते.
नहीं हुए, आगे न होंगे
मैं या तुम यह सत्य नहीं है.
हम सब सदां सदां से ही हैं,
होंगे आगे भी, सत्य यही है.
बचपन, यौवन और बुढ़ापा
जैसे मानव तन को आता.
धीरज जन न शोक मनाते,
मृत्योपर नव तन मिल जाता.
इन्द्रिय का सम्बन्ध जगत से
है सुख दुःख को देने वाला.
सहन करो अर्जुन तुम यह सब
यह सब क्षणिक, न रहने वाला.
जो सुख दुःख में सम रहता है,
कष्ट न धीर पुरुष हैं पाते.
व्यथित नहीं होते जो इनसे,
वही परम मोक्ष को पाते.
........क्रमशः
कैलाश शर्मा
पुनः पद्यमय गीता...!
ReplyDeleteसार्थक प्रयास
इस बार भी पहले की तरह सुन्दर ।
ReplyDeleteआपका हिंदी काव्यमय अनुवाद प्रसंसनीय है.
ReplyDeleteसार्थक प्रस्तुति के लिए आभार.
जो सुख दुःख में सम रहता है,
ReplyDeleteकष्ट न धीर पुरुष हैं पाते.
व्यथित नहीं होते जो इनसे,
वही परम मोक्ष को पाते....
very inspiring.
.
बहुत सुन्दर काव्यमयी भावानुवाद चल रहा है ………शानदार प्रस्तुति
ReplyDeleteबहुत सुंदर ....
ReplyDeleteजो सुख दुःख में सम रहता है,
ReplyDeleteकष्ट न धीर पुरुष हैं पाते.
व्यथित नहीं होते जो इनसे,
वही परम मोक्ष को पाते.
भावों का सुन्दर रूप .... सार्थक प्रयास के लिए आपका आभार
अनुपम भाव संयोजन ...
ReplyDeleteधीरज जन न शोक मनाते.
ReplyDelete@ सम्पूर्ण काव्य प्रवाह में है...
खूबियों में तुरंत एक नये अलंकार पर दृष्टि पड़ी :
अनुप्रास का छठा भेद यानी 'अन्त्यारम्भ अनुप्रास'
धीर(ज) (ज)(न) (न) शोक मनाते
आपके प्रोत्साहन का आभारी हूँ ...
Deleteसुन्दर प्रस्तुति ।
ReplyDeleteआभार सर ।।
Behad badhiya!
ReplyDeleteजो सुख दुःख में सम रहता है,
ReplyDeleteकष्ट न धीर पुरुष हैं पाते.
व्यथित नहीं होते जो इनसे,
वही परम मोक्ष को पाते.
बहुत सुंदर सार्थक अभिव्यक्ति // पहले ही की तरह बेहतरीन रचना // कैलाश जी,..बधाई //
MY RECENT POST ....काव्यान्जलि ....:ऐसे रात गुजारी हमने.....
बहुत सुंदर
ReplyDeleteऔर सरलता से मन के भीतर तक पहुँच रही हैं पंक्तियाँ...
आभार .
अति सुन्दर काव्यमयी कृति..
ReplyDeleteनहीं हुए, आगे न होंगे
ReplyDeleteमैं या तुम यह सत्य नहीं है.
हम सब सदां सदां से ही हैं,
होंगे आगे भी, सत्य यही है.
वाह यही तो आत्माओं का संरक्षण उनका होना बरकरार रहना है उनकी इज्नेस का कायम रहना है .आत्मा अमर है शरीर नाशवान है मैं देही अभिमानी बनूँ देह अभिमानी नहीं .गीता का BHI9 यही कायात्मक सन्देश आप दे रहें हैं आभार कैलाश जी आपका .
क्या बारीक अन्वीक्षण किया है प्रतुल वशिठ जी मजा आगया .अन्त्यारम्भ अनुप्रास .बहुत खूब पारखी नजर पाई है .नजर न लगे इस नजर को किसी की .
ReplyDeleteजो सुख दुःख में सम रहता है,
ReplyDeleteकष्ट न धीर पुरुष हैं पाते.
व्यथित नहीं होते जो इनसे,
वही परम मोक्ष को पाते... sach hai
बहुत ही सहज और सरल भाषा में गीता का गूड रहस्य समझा रहे हैं ...
ReplyDeleteनहीं हुए, आगे न होंगे
ReplyDeleteमैं या तुम यह सत्य नहीं है.
हम सब सदां सदां से ही हैं,
होंगे आगे भी, सत्य यही है.
सारा जीवन दर्शन इन्हीं शब्दों में छिपा है बस..
सादर ..
अति सुन्दर सार्थक अभिव्यक्ति
ReplyDeletesunder kavyamay geeta sar..
ReplyDeleteआपका अनुवाद पढ़कर संस्कृत का एक एक दोहा याद आ रहा है।
ReplyDeleteअनुवाद अच्छा लगा । मेरे पोस्ट पर आपका इंतजार रहेगा । धन्यवाद ।
ReplyDeleteजो सुख दुःख में सम रहता है,
ReplyDeleteकष्ट न धीर पुरुष हैं पाते.
व्यथित नहीं होते जो इनसे,
वही परम मोक्ष को पाते..
सरल गहन अभिव्यक्ति !!
जो सुख दुःख में सम रहता है,
ReplyDeleteकष्ट न धीर पुरुष हैं पाते.
व्यथित नहीं होते जो इनसे,
वही परम मोक्ष को पाते.
शानदार प्रस्तुति अगली किश्त का इंतज़ार है ..कृपया यहाँ भी पधारें -
शनिवार, 5 मई 2012
चिकित्सा में विकल्प की आधारभूत आवश्यकता : भाग - १
चिकित्सा में विकल्प की आधारभूत आवश्यकता : भाग - १
सार्थक प्रस्तुति .......
ReplyDeleteसार्थक संकल्प सुंदर लेखन. इस श्रंखल को चालू रखें.
ReplyDelete"जो सुख दुःख में सम रहता है,
ReplyDeleteकष्ट न धीर पुरुष हैं पाते.
व्यथित नहीं होते जो इनसे,
वही परम मोक्ष को पाते."
अत्यंत प्रेरक और अति सुंदर अभिव्यक्ति! साधुवाद।