(सांख्य योग - २.१-१०)
अर्जुन की दयनीय दशा थी,
छलक रहे आंसू नयनन से.
अंतर्मन दुःख से कातर था,
मधुसूदन बोले अर्जुन से.
कैसे तुमको मोह हो गया,
विषम युद्ध संकट के पल में
श्रेष्ठ जन कभी न करते ऐसा
स्वर्ग,यश न पाओगे जग में.
विषम युद्ध संकट के पल में
श्रेष्ठ जन कभी न करते ऐसा
स्वर्ग,यश न पाओगे जग में.
बनो नपुंसक न तुम अर्जुन,
नहीं शोभनीय है यह तुमको.
मन की दुर्बलता को छोडो,
हो जाओ तुम खड़े युद्ध को.
अर्जुन :
भीष्म पितामह, गुरु द्रोण पर,
बाण प्रहार करूं मैं कैसे ?
भीख मांग कर करूं गुजारा,
बेहतर होगा उनके वध से.
अर्थ कामना से प्रेरित हो
जो गुरुजन को मैं मारूँगा.
उनका रक्त सना जिसमें हो
वह सुख मैं कैसे भोगूँगा.
नहीं पता है कौन बली है,
कौन युद्ध जीते हारेगा.
वध करके धृतराष्ट्र पुत्र का,
कौन भला जीना चाहेगा.
संशय में पड़ने के कारण
मम स्वभाव भी लुप्त होगया.
मेरा धर्म बताओ माधव,
मैं किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया.
शिष्य आपका शरण में आया,
निश्चित श्रेयस्कर मुझे बताओ.
नहीं समझ मेरे कुछ आता,
अब तुम मुझको राह सुझाओ.
राज्य मिले सम्पूर्ण धरा का
या स्वामित्व सभी देवों का.
नहीं उपाय समझ में आता,
गहन शोक हरे जो मन का.
नहीं करूंगा युद्ध मैं माधव,
अर्जुन मौन हुए यह कह कर.
युद्ध भूमि में व्यथित पार्थ से
हृषिकेश ने कहा ये हंस कर.
.....क्रमशः
कैलाश शर्मा
sundar tatha vistrit varnan.aabhar
ReplyDeleteहमेशा की तरह सुन्दर ।
ReplyDeletebahut sundar...
ReplyDeleteसुखद यात्रा
ReplyDeleteबहुत सुंदर प्रस्तुति.....
ReplyDeleteMY RESENT POST .....आगे कोई मोड नही ....
बड़ा ही प्रवाह है इस रचना में।
ReplyDeleteसुन्दर शब्दों में विस्तृत वृत्तान्त...
ReplyDeleteगीता को इस रूप में पढना अच्छा लग रहा है ....!
ReplyDeleteकेवल इतना ही कहना है कि ...इस श्रृंखला (गीता ) की आज आवश्यकता है...
ReplyDeleteसच में इस सरलता से पढ़ने में आनन्द दूना हुआ जा रहा है।
ReplyDeleteगीता का यह रूप मन को भावविभोर करता हुआ ...
ReplyDeleteअर्जुन की दयनीय दशा थी,
ReplyDeleteछलक रहे आंसू नयनन से.
अंतर्मन दुःख से कातर था,
मधुसूदन बोले अर्जुन से.
गीता का यह काव्य अंतरण बरबस माँ की याद दिलाता है जो मुंडेर पे बैठ पालथी मारके सस्वर गीता पाठ करतीं .थीं इस प्रकार घर में एक मौखिक परम्परा चली आई .आज वह सब याद आता है माँ की आवाज़ भी गूँज रही है स्मृति के कानों में.शुक्रिया माँ की याद दिलाने का ,गीता पाठ सुनाने का सांगीतिक अनुपम लय ताल बद्ध .
बेहद प्रेरणादायी प्रसंग है। अद्भुत अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteसरल और सहज प्रवाह में लिखी गई रचना...
ReplyDeleteसादर
बेहतरीन और प्रभावशाली रचना....
ReplyDeleteअर्थ कामना से प्रेरित हो
ReplyDeleteजो गुरुजन को मैं मारूँगा.
उनका रक्त सना जिसमें हो
वह सुख मैं कैसे भोगूँगा.
बहुत अच्छी पंक्तियाँ ...आभार
शिष्य आपका शरण में आया,
ReplyDeleteक्या श्रेयस्कर मुझे बताओ.
नहीं समझ मेरे कुछ आता,
तुम ही मुझको राह सुझाओ.
यहाँ श्रेयस्कर से पहले यदि 'निश्चित'
भी लगाएं तो अनुवाद मूल श्लोक के
और निकट व सार्थक होगा.
क्यूंकि अर्जुन को अपने कल्याण का
'निश्चित' यानि permanent/sure
मार्ग चाहिए था न कि temporary.
सुन्दर सार्थक प्रस्तुति के लिए आभार,कैलाश जी.
आपके मार्गदर्शन और सुझाव के लिये आभार....
Deleteकैसे तुमको मोह हो गया,
ReplyDeleteविषम युद्ध संकट के पल में.
स्वर्ग नहीं जाता ये रस्ता,
अपयश भी पाता है जग में.
इस पद को यदि ऐसे लिखें
कैसे तुमको मोह हो गया,
विषम युद्ध संकट के पल में
श्रेष्ठ जन कभी न करते ऐसा
स्वर्ग,यश न पाओगे जग में.
तो भगवान कृष्ण के द्वारा अर्जुन को कही गयी
तीन बातों 'अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरम्'
का आशय अधिक स्पष्ट हो सकेगा.इन तीन बातों सहित
श्लोक २/२ व २/३ में कही गयी अन्य बातों पर
विचार करने के उपरान्त ही अर्जुन श्लोक २/७ में स्वयं को कायरता
के दोष से ग्रसित व धर्म को समझने में अपनी असमर्थता
स्वीकारते हुए कृष्ण के समक्ष स्वयं को उनका शिष्य मान. उनकी शरण में होकर उनसे निश्चित कल्याण का मार्ग बतलाने के
लिए याचना करने लगते हैं.
मेरा उद्देश्य पदों में सार्थकता बढाने का ही है.
मेरे बताने में यदि कोई त्रुटी हुई हो तो क्षमा
कीजियेगा.
आपके सुप्रयास को नमन.
राकेश जी आपके द्वारा अनुवाद का गहन अध्यन और सुझाव मेरे लिये सौभाग्य की बात हैं. मेरी कोशिश रहती है कि मैं गीता के श्लोकों के अर्थों और भावों के निकटतम रहूँ, लेकिन अनुवाद में भावों, शब्दों और लय के सामंजस्य और प्रवाह बनाये रखने की कोशिश में कई बार रचना के केवल मूल भाव को लेने की मज़बूरी हो जाती है.
Deleteआशा है आप अपने बहुमूल्य सुझावों से इसी तरह भविष्य में लाभान्वित करते रहेंगे. बहुत बहुत आभार
बहुत सुंदर............................
ReplyDeleteसादर.
आपने मेरे सुझावों को अपनी बहुमूल्य प्रस्तुति में शामिल किया,
ReplyDeleteइसके लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद और आभार,कैलाश जी.
प्रवाहमय सरल भाषा में गीता की गंगा बह रही है ...
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