वाह ...........सहेजने योग्य ..........
सच कहा जिन्दगी की दौड़ मे कई बार हम खुद को ही भूल जाते हैं...बहुत सुन्दर भाव...आभार
शानदार
waah bahut sundar
shandar post .
वाह ...बहुत खूब।
बहुत ही सुन्दर और रचना ।
अपना ही अस्तित्व गुम हो जाता है मुखौटों के बीच .....बहुत सुंदर रचना
सच कह दिय कैलाश जी आज हम सबका यही हाल है ।
..अपने को भूलने का कुछ तो खामियाजा होगा !
आज स्वयं को खोजता, खुद से ही अंजान। तृष्णा के बाजार में, तृषित हृदय इनसान॥ बहुत सुंदर रचना.... सादर।
बहुत ही सुन्दर औ रबेहतरीन रचना आभार !
अनजान अपने ही अस्तित्व से,ढूंढ रहा हूँ वह चेहराजो हो गया है गुमअनगिनत मुखौटों के बीच.behtareen rachna !
गंभीर चिंतन!
बहुत ही सुन्दर और बेहतरीन रचना......
bikul sacchi abhivaykti....
वाह...बहुत बढ़िया......छोटी से रचना...बहुत बड़ी बात......सादर.
आज खड़ा विजय रेखा परअनजान अपने ही अस्तित्व से,ढूंढ रहा हूँ वह चेहराजो हो गया है गुमअनगिनत मुखौटों के बीच.Aisa na jane kitnon ke saath hota hoga!
sach hai aajkal her insan apni pehchaan khota ja raha hai.....
मुखौटों पर भी मुखौटे हैं
वाह! बहुत बढिया रचना है।
bitter truth..
कभी - कभी ऐसा ही महसूस होता है, कौन है हम, कहाँ हैं हम...लाजवाब रचना....
बहुत सुंदर गभीर अभिव्यक्ति,बेहतरीन रचना,,,,,MY RECENT POST,,,,,काव्यान्जलि,,,,,सुनहरा कल,,,,,
chaah kya kya nahi karva deti.par chaah karna bhi to hamaare hi haath men hai.utkrasht prastuti ke liye aabhar kailaash ji.
सही है!
मुखौटों का चरित्र जीते इंसान खुद मुखौटा हो जाता है ...वाकई !
साहित्य के इस टुकड़े को बहुत सुंदर मुखौटा दिया है आपने..आभार !!
विजय पथ पर खड़ा...पर खुद से ही अनजान...सुंदर रचना !!
बहुत सुन्दर( अरुन =arunsblog.in)
सचमुच एक मुकाम पर आकर इंसान खुद से भी अपरिचित रह जाता है पर तब तक बहुत देर हो चुकी होती है...बहुत सुंदर रचना !
ज़िन्दगी में कब कब न जाने कितने मुखोटे लगाने पड़ते हैं आज मुखोटा जरूरी हो गया है ,जीने के लिए भाव पूर्ण सुन्दर रचना ,
आज खड़ा विजय रेखा परअनजान अपने ही अस्तित्व से,ढूंढ रहा हूँ वह चेहराजो हो गया है गुमअनगिनत मुखौटों के बीच.waah! sach hai, khud dhoondna mushkil sa lagta hai…
मुखोटो के बीच असली चहेरा ना जाने कहाँ खो गया .......
Aaj to dim mein Bhi Kai Kai mukhote badal jate hain ... Asal chehra dhoondhna Bahut mushkil ho Gaya hai ...
मुखौटों के बीच वो मासूम चेहरा कहीं छिप गया है....व्यथा का सरल और सटीक चित्रण बेजोड़ रचनाआभार
सच है, चेहरा कहीं नहीं है, चारों तरफ मुखौटे ही मुखौटे हैं।
प्रभावशाली और सशक्त प्रस्तुति । आभार ।
इन मुखोटो के बीच असली चेरा मिलना जरा मुश्किल है |
sach, mukhoute bahut pareshaan karte hain
sahi kaha kailash bhai
बहुत सही कहा है आपने...कभी कभी दिखावे में हम खुद को भूल ही जाते है..शानदार रचना:-)
वाह ...........सहेजने योग्य ..........
ReplyDeleteसच कहा जिन्दगी की दौड़ मे कई बार हम खुद को ही भूल जाते हैं...बहुत सुन्दर भाव...आभार
ReplyDeleteशानदार
ReplyDeletewaah bahut sundar
ReplyDeleteshandar post .
ReplyDeleteवाह ...बहुत खूब।
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर और रचना ।
ReplyDeleteअपना ही अस्तित्व गुम हो जाता है मुखौटों के बीच .....बहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteसच कह दिय कैलाश जी आज हम सबका यही हाल है ।
ReplyDelete..अपने को भूलने का कुछ तो खामियाजा होगा !
ReplyDeleteआज स्वयं को खोजता, खुद से ही अंजान।
ReplyDeleteतृष्णा के बाजार में, तृषित हृदय इनसान॥
बहुत सुंदर रचना....
सादर।
बहुत ही सुन्दर औ रबेहतरीन रचना
ReplyDeleteआभार !
अनजान अपने ही अस्तित्व से,
ReplyDeleteढूंढ रहा हूँ वह चेहरा
जो हो गया है गुम
अनगिनत मुखौटों के बीच.
behtareen rachna !
गंभीर चिंतन!
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर और बेहतरीन रचना......
ReplyDeletebikul sacchi abhivaykti....
ReplyDeleteवाह...
ReplyDeleteबहुत बढ़िया......
छोटी से रचना...बहुत बड़ी बात......
सादर.
आज खड़ा विजय रेखा पर
ReplyDeleteअनजान अपने ही अस्तित्व से,
ढूंढ रहा हूँ वह चेहरा
जो हो गया है गुम
अनगिनत मुखौटों के बीच.
Aisa na jane kitnon ke saath hota hoga!
sach hai aajkal her insan apni pehchaan khota ja raha hai.....
ReplyDeleteमुखौटों पर भी मुखौटे हैं
ReplyDeleteवाह! बहुत बढिया रचना है।
ReplyDeletebitter truth..
ReplyDeleteकभी - कभी ऐसा ही महसूस होता है, कौन है हम, कहाँ हैं हम...
ReplyDeleteलाजवाब रचना....
बहुत सुंदर गभीर अभिव्यक्ति,बेहतरीन रचना,,,,,
ReplyDeleteMY RECENT POST,,,,,काव्यान्जलि,,,,,सुनहरा कल,,,,,
chaah kya kya nahi karva deti.
ReplyDeletepar chaah karna bhi to hamaare hi haath men hai.
utkrasht prastuti ke liye aabhar kailaash ji.
सही है!
ReplyDeleteमुखौटों का चरित्र जीते इंसान खुद मुखौटा हो जाता है ...
ReplyDeleteवाकई !
साहित्य के इस टुकड़े को बहुत सुंदर मुखौटा दिया है आपने..
ReplyDeleteआभार !!
विजय पथ पर खड़ा...पर खुद से ही अनजान...सुंदर रचना !!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
ReplyDelete( अरुन =arunsblog.in)
सचमुच एक मुकाम पर आकर इंसान खुद से भी अपरिचित रह जाता है पर तब तक बहुत देर हो चुकी होती है...बहुत सुंदर रचना !
ReplyDeleteज़िन्दगी में कब कब न जाने कितने मुखोटे लगाने पड़ते हैं आज मुखोटा जरूरी हो गया है ,जीने के लिए
ReplyDeleteभाव पूर्ण सुन्दर रचना ,
आज खड़ा विजय रेखा पर
ReplyDeleteअनजान अपने ही अस्तित्व से,
ढूंढ रहा हूँ वह चेहरा
जो हो गया है गुम
अनगिनत मुखौटों के बीच.
waah! sach hai, khud dhoondna mushkil sa lagta hai…
मुखोटो के बीच असली चहेरा ना जाने कहाँ खो गया .......
ReplyDeleteAaj to dim mein Bhi Kai Kai mukhote badal jate hain ... Asal chehra dhoondhna Bahut mushkil ho Gaya hai ...
ReplyDeleteमुखौटों के बीच वो मासूम चेहरा कहीं छिप गया है....व्यथा का सरल और सटीक चित्रण
ReplyDeleteबेजोड़ रचना
आभार
सच है, चेहरा कहीं नहीं है, चारों तरफ मुखौटे ही मुखौटे हैं।
ReplyDeleteप्रभावशाली और सशक्त प्रस्तुति । आभार ।
ReplyDeleteइन मुखोटो के बीच असली चेरा मिलना जरा मुश्किल है |
ReplyDeletesach, mukhoute bahut pareshaan karte hain
ReplyDeletesahi kaha kailash bhai
ReplyDeleteबहुत सही कहा है आपने...
ReplyDeleteकभी कभी दिखावे में हम खुद को भूल ही जाते है..
शानदार रचना:-)