(On World Elder Abuse Awareness Day)
मत रिश्तों की आज दुहाई मुझको दो,
दर्द मिला है बहुत मुझे रिश्ते अपनों से.
कहाँ खून के रिश्ते, जब नस नस में पानी,
नहीं ह्रदय में प्यार, यहाँ रिश्ते बेमानी.
आस लगा कर क्यों बैठा शीतल फुहार की,
सुखा गया स्वारथ मरुथल, नयनों का पानी.
अब तो जीवन सांझ, अँधेरा घिरने को है,
सोना भी है कठिन, लगे है डर सपनों से.
हाथ बढ़ाया दादी माँ ने, जब अपना बचपन छूने को,
ठिठक गयी ममता, आँखों में अपनों की देखा वर्जन को.
कितनी बार झांक कर देखा, कितनी बार भिगोया तकिया,
इतना दर्द नहीं होता, गर वन्ध्या भी कहते सब उसको.
नहीं वेदना देखी जाती उस औरत की,
टूट गए हों सपने जब हाथों अपनों के.
कंटक भरी राह पर चलते, रहे उठाये भारी गठरी,
तपते रहे धूप में लेकिन रहे उठाये उन पर छतरी.
कम्पित हाथ, लड़खड़ाते पग, आँखों के धुंधलायेपन ने,
सिर्फ प्यार का संबल चाहा,नहीं आस कोई प्रतिफल की.
उसे न दे पाऊँगा मैं अधिकार अग्नि देने का,
निभा दिए हैं फ़र्ज़, ज़ला रिश्ते अपनों से.
पैदा होता गैर हाथ में, जाता गैरों के कन्धों पर,
व्यर्थ किया सारा जीवन, बस अंतराल के संबंधों पर.
गँवा दिया यौवन का सूरज,आस दीप की संध्या पल में.
काली रात बितानी होगी, नज़र टिकाये बस तारों पर.
व्यर्थ आस कि जाये कन्धों पर अपनों के,
कंधे तो कंधे हैं, गैरों के हों या अपनों के.