Thursday, November 24, 2016

समस्याएं अनेक, व्यक्ति केवल एक

समस्याएँ अनेक
उनके रूप अनेक
लेकिन व्यक्ति केवल एक।
नहीं होता स्वतंत्र अस्तित्व
किसी समस्या या दुःख का,
नहीं होती समस्या
कभी सुप्तावस्था में
जब जाग्रत होता 'मैं'
घिर जाता समस्याओं से।

मेरा 'मैं'
देता एक अस्तित्व
मेरे अहम् को
और कर देता आवृत्त
मेरे स्वत्व को।
मैं भुला देता मेरा स्वत्व
और धारण कर लेता रूप
जो सुझाता मेरा 'मैं'
अपने अहम् की पूर्ती को।

नहीं होती कोई सीमा
अहम् जनित इच्छाओं की,
अधिक पाने की दौड़ देती जन्म
ईर्ष्या, घमंड और अवसाद
और घिर जाते दुखों के भ्रमर में।

'मैं' नहीं है स्वतंत्र शरीर या सोच
जब 'मैं' जुड़ जाता
किसी अस्तित्व से
तो हो जाता आवृत्त अहम् से,
जब हो जाता साक्षात्कार
अहम् विहीन स्वत्व से
हो जाते मुक्त दुखों से
और होती प्राप्त परम शांति।


कर्म से नहीं मुक्ति मानव की
लेकिन अहम् रहित कर्म
नहीं है वर्जित 'मैं'.
हे ईश्वर! तुम ही हो कर्ता
मैं केवल एक साधन
और समर्पित सब कर्म तुम्हें
कर देता यह भाव
मुक्त कर्म बंधनों से,
और हो जाता अलोप 'मैं'
और अहम् जनित दुःख।


...©कैलाश शर्मा 

Saturday, September 24, 2016

संवेदनहीनता

दफ्न हैं अहसास
मृत हैं संवेदनाएं,
घायल इंसानियत
ले रही अंतिम सांस
सड़क के किनारे,
गुज़र जाता बुत सा आदमी
मौन करीब से.

नहीं है अंतर गरीब या अमीर में
संवेदनहीनता की कसौटी पर.

...©कैलाश शर्मा 

Saturday, August 27, 2016

ज़िंदगी कुछ नहीं कहा तूने

ज़िंदगी कुछ नहीं कहा तूने,
मौन रह कर सभी सहा तूने।

रात भर अश्क़ थे रहे बहते,
पाक दामन थमा दिया तूने।

लगी अनजान पर रही अपनी,
दर्द अपना नहीं कहा तूने।

फूल देकर सदा चुने कांटे,
ज़ख्म अपना छुपा लिया तूने।


मौत मंज़िल सही जहां जाना,
राह को पुरसुकूँ किया तूने।

~~©कैलाश शर्मा 

Sunday, July 17, 2016

याद दे कर न तू गया होता

काश तुमसे न मैं मिला होता,
दर्द दिल में न ये पला होता।

रौनकों की कमी न दुनिया में,
एक टुकड़ा हमें मिला होता।

आसमां में हज़ार तारे हैं,
एक तारा मुझे मिला होता।

तू न मेरे नसीब में गर था,
इस जहाँ में न तू मिला होता।

ज़िंदगी कट रही बिना तेरे,
याद दे कर न तू गया होता 

नींद से टूटता नहीं नाता,
खाब तेरा न गर पला होता।

...© कैलाश शर्मा 

Tuesday, June 07, 2016

ज़िंदगी कुछ ख़फ़ा सी लगती है

ज़िंदगी कुछ ख़फ़ा सी लगती है,
रोज़ देती सजा सी लगती है।

रौनकें सुबह की हैं कुछ फीकी,
शाम भी बेमज़ा सी लगती है।

राह जिस पर चले थे हम अब तक,
आज वह बेवफ़ा सी लगती है।

संदली उस बदन की खुशबू भी,
आज मुझको कज़ा सी लगती है।

दर्द जो भी मिला है दुनिया में,
यार तेरी रज़ा सी लगती है।

...© कैलाश शर्मा 

Saturday, May 21, 2016

अप्प दीपो भव

बुद्ध नहीं एक व्यक्ति विशेष
बुद्ध है बोध अपने "मैं" का
एक मार्ग पहचानने का अपने आप को,
नहीं करा सकता कोई और
पहचान मेरी मेरे "मैं" से,
मिटाना होगा स्वयं ही
अँधेरा अपने अंतस का,
'अप्प दीपो भव' नहीं केवल एक सूत्र
यह है एक शाश्वत सत्य,
अनंत प्रकाश को जीवन में 
बनना होता अपना दीप स्वयं ही,
किसी अन्य का दीपक
कर सकता रोशन राह
केवल कुछ दूर तक,
फ़िर अनंत अंधकार और भटकाव
शेष जीवन राह में।

जलाओ दीपक अपने अंतस में
समझो अर्थ अपने होने का,
बढ़ो उस राह जो हो आलोकित
स्व-प्रज्वलित ज्ञान दीप से।

...© कैलाश शर्मा 

Wednesday, April 20, 2016

खून अपना सफ़ेद जब होता

खून अपना सफ़ेद जब होता,
दर्द दिल में असीम तब होता।

दर्द अपने सदा दिया करते,
गैर के पास वक़्त कब होता।

रात गहरी सियाह जब होती,
कोइ अपना क़रीब कब होता।

चोट लगती ज़ुबान से ज़ब है, 
घाव गहरा किसे नज़र होता।

बात को दफ्न आज रहने दो,
ग़र कुरेदा तो दर्द फ़िर होता।

बात कह जब पलट गया कोई,
मौन रहना नसीब बस होता

~©कैलाश शर्मा 

Thursday, February 18, 2016

क्षणिकाएं

हर खिड़की दरवाज़े से
जाते यादों के झोंके
दे जाते कभी
सिहरन ठंडक की
कभी तपन लू की।

बंद कर दीं
सब खिड़कियाँ, दरवाज़े
लेकिन जातीं दरारों से,
बहुत मुश्किल बचना
यादों के झोंकों से।

यादें कब होती मुहताज़
किसी दरवाज़े की।
*****

उधेड़ता रहा रात भर 
ज़िंदगी परत दर परत,
पाया उकेरा हर परत में
केवल तेरा अक्स,
और भी हो गए हरे
दंश तेरी यादों के।

~©कैलाश शर्मा 

Wednesday, February 03, 2016

अश्क़ जब आँख से ढला होगा

अश्क़ जब आँख से ढला होगा,
दर्द दिल का बयां हुआ होगा।

एक तस्वीर उभर आई थी,
ये पता कब धुंआ धुंआ होगा।

बात लब पर थमी रही होगी,
नज्र ने कुछ नहीं कहा होगा।

आज तक दंश गढ़ रहा यह है,
बेवफ़ा समझ के गया होगा।

चाँद का दर्द कौन समझा है,
सुब्ह चुपचाप घर गया होगा।

न कुछ हमने कहा न था तूने,
दास्ताँ कौन गढ़ गया होगा।

बारहा बात सिर्फ़ इतनी थी,
बात कहने न कुछ बचा होगा।


~©कैलाश शर्मा 

Tuesday, January 19, 2016

किस किस का अहसास लिखूं मैं

मन की टूटी आस लिखूं मैं,
अंतस का विश्वास लिखूं मैं,
फूलों का खिलने से लेकर
मिटने का इतिहास लिखूं मैं।

रोटी को रोते बच्चों का,
तन के जीर्ण शीर्ण वस्त्रों का,
चौराहे बिकते यौवन का
या सपनों का ह्रास लिखूं मैं,
किस किस का इतिहास लिखूं मैं।

रिश्तों का अवसान है देखा,
बिखरा हुआ मकान है देखा,
वृद्धाश्रम कोनों से उठती
क्या ठंडी निश्वास लिखूं मैं,
क्या जीवन इतिहास लिखूं मैं।

आश्वासन होते न पूरे,
वादे रहते सदा अधूरे,
धवल वसन के पीछे काले
कर्मों का इतिहास लिखूं मैं,
टूटा किसका विश्वास लिखूं मैं।

टूट गए जब स्वप्न किसी के
मेहंदी रंग हुए जब फ़ीके,
पलकों पर ठहरे अश्क़ों की
न गिरने की आस लिखूं मैं,
किस किस का अहसास लिखूं मैं।

जीवन में अँधियारा गहरा
मौन गया आँगन में ठहरा,
कैसे अपने सूने मन की
फिर खुशियों की आस लिखूं मैं,
कैसे अपना इतिहास लिखूं मैं।

...©कैलाश शर्मा

Monday, January 04, 2016

ज़ब ज़ब शाम ढली

ज़ब ज़ब शाम ढली,
हर पल आस पली।

ज़ीवन बस उतना,
जब तक सांस चली।

दिन गुज़रा सूना,
तनहा शाम ढली।

खुशियाँ कब ठहरी,
कल पर बात टली।

सूनी राह दिखी,
मन में पीर पली।

अपना कौन यहाँ,
झूठी आस पली।

मंज़िल दूर नहीं,
सांसें टूट चली।

...©कैलाश शर्मा