Wednesday, April 29, 2015

प्रकृति आक्रोश

करते जब खिलवाड़
अस्तित्व से प्रकृति की 
विकृत करते उसका रूप
विकास के नाम पर,
अंतस का आक्रोश
और आँखों के आंसू
बन जाते कभी सैलाब
कभी भूकंप
और बहा ले जाते
जो भी आता राह में.

समझो घुटन को
प्रकृति की चीत्कार को
दबी कंक्रीट के ढेर के नीचे
तरसती एक ताज़ा सांस को,
प्रकृति नहीं तुम्हारी दुश्मन
फटने लगती छाती दर्द से
देख कर दर्द अपनी संतान का.

संभलो, 
यदि संभल सको, 
अब भी.

....कैलाश शर्मा 

Monday, April 20, 2015

सीढ़ियां

बढ़ते ही कुछ आगे सीढ़ियों पर 
हो जाते विस्मृत संबंध व रिश्ते,
निकल जाते अनज़ान हो कर
बचपन के हमउम्र साथियों से 
जो खेल रहे क्रिकेट
नज़दीकी मैदान में।

खो जाती स्वाभाविक हँसी
बनावटी मुखोटे के अन्दर,
खो जाता अन्दर का छोटा बच्चा
अहम् की भीड़ में।
विस्मृत हो जातीं पिछली सीढ़ियां
जिनके बिना नहीं अस्तित्व
किसी अगली सीढ़ी का।

कितना कुछ खो देते
अपने और अपनों को,
आगे बढ़ने की दौड़ में।

...कैलाश शर्मा 

Saturday, April 11, 2015

सन्नाटे की चीख ड़से है

कैसे देखूं मैं अब सपने, 
इन आँखों में अश्रु भरे हैं,
नींद खडी है दरवाज़े पर, 
हर कोने में दर्द खड़े हैं।

रातों का हर पहर डराता 
तिमिर ढांक अंतस को जाता,
रात अमावस की काली में 
कोई अस्तित्व नज़र न आता,
कैसे हाथ बढ़ा कर पकडूँ
सौगंधों के शूल गढ़े हैं।

धूमिल हुई हाथ की मेहंदी 
सजल नयन सूखे सूखे से,
भीगे भीगे भाव हैं मन के
तृषित अधर रूखे रूखे से,
नज़र चाँद की आज न उठती
तारे पहरेदार खड़े हैं।

बोझ है मन पर कितना भारी
जीवन हुआ सिर्फ लाचारी,
वर्षा ऋतु में मन बगिया की          
पतझड़ झेल रही हर क्यारी,
खुशियाँ मौन खड़ी हैं दर पर
सन्नाटे की चीख ड़से है.

...कैलाश शर्मा