Saturday, October 29, 2011

मेरा आईना झूठ बोलता है

बहुत दिनों बाद देखा
कुछ हमउम्र चेहरों को
और चौंक गया.


वक़्त का तूफ़ान 
छोड़ गया कितने निशान
जो उभर आये चेहरों पर
झुर्रियां बन कर,
और हर पंक्ति
समाये एक इतिहास
अपने आप में. 

भर गया मन अवसाद से
देख कर अपना अक्श
उनकी आँखों में,
लेकिन मेरा आईना
जिससे मैं रोज़ मिलता हूँ 
मुझे कुछ और ही कहता रहा.

आज मुझे लगा 
कि शायद
मेरा आईना
मुझसे झूठ बोलता है.

Monday, October 24, 2011

आओ सब एक दीप जलायें

               प्यार लुटा कर देख लिया अब तक अपनों पर,
               आओ अब कुछ खुशियाँ बाँटें, बाहर भी जग में.

                           कौन है अपना कौन पराया,
                           झूठे रिश्तों ने मन भरमाया.
                           हाथ बढ़ा कर देखो उसको,
                           जिसने प्यार कभी न पाया.

               क्या पाया तुमने केवल अपनों के अश्रु पोंछ कर,
               बांटो कुछ मुस्कानें, इससे जो अनजान हैं जग में.

                           मत गुम हो अपनी खुशियों में,
                           कुछ तो बांटो तुम दुखियन में.
                           कैसे अपना ही पेट मैं भर लूं,
                           जले न चूल्हा जब हर घर में.

               बहुत जी लिये अब तक, अपने ही स्वारथ की खातिर,
               करें समर्पित जीवन उनको,जो अनाथ लाचार हैं जग में.

                           बहुत अँधेरा इन कुटियों में,
                           आओ सब एक दीप जलायें.
                           दीप न महलों के कम होंगे,
                           हर आँगन को अगर सजायें.  

               मंदिर में तो अर्चन करते, दीप जलाते  उम्र कट गयी,
               आओ मिलकर दीप जलायें, घना अँधेरा है जिस पथ में.


                    दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं !

Thursday, October 20, 2011

वक़्त की लहर

वक़्त की हर उत्तंग लहर
लेकर आती है
एक नयी लहर 
आशा की,
लेकिन लौटते हुए 
बहाकर ले जाती है
कुछ और रेत
पैरों के नीचे से,
और महसूस होता है
मेरे वज़ूद का एक और हिस्सा
बह गया है 
उस रेत के साथ.

Friday, October 14, 2011

मीरा तो बन सकती हूँ

अगर नहीं बन पायी राधा, 
मीरा  तो  बन  सकती  हूँ.
मुरली बन न अधर छू सकी, 
मुरली  तो सुन सकती हूँ.

     नहीं ज़रूरी है जीवन में, 
साथ मिले प्रियतम का हर पल.
     मेरे लिये बहुत है इतना, 
हर श्वासों  में हो तेरी  हल चल.

प्रेम न तन का साथ मांगता, 
वह तो  रोम  रोम  बसता  है.
नयन उठाकर जिधर मैं देखूं, 
कण कण में तू ही दिखता है.

श्याममयी हो गया है जीवन, 
ईर्ष्या फिर राधा से क्यों हो?
चरण धूल सिंदूर बन गया,  
इससे बढ़ आशा फिर क्यों हो?

Saturday, October 08, 2011

सूना आकाश

जून की तपती धूप में
गर्मी से बचने की कोशिश में
एक कबूतर का जोड़ा
बैठा था वरांडे की खिड़की पर.

उदास, अकेले
नहीं कर रहे थे गुटरगूं,
शायद बचा नहीं था कुछ 
करने को एक दूसरे से गुफ़्तगू.

कितनी बार उन्हें
तिनका तिनका सहेजकर
घोंसला बनाते,
अंड़ों से निकले बच्चों को,
अपनी भूख को भुलाकर,
दूर से दाना लाते
और अपनी चोंच से खिलाते 
देखा था.

बच्चों के पर आने पर
उनको उड़ना सिखाते,
गिरने पर उठाते
और  फिर उड़ना सिखाते.


कुछ दिन बाद 
बच्चे उड़ने लगते,
माँ बाप भी उनके साथ उड़ते
और गुटरगूं करते,
उनकी स्वप्निल आँखों में 
कितने सपने जगते.

एक दिन देखा 
उड़कर गए बच्चे
वापिस नहीं आये,
और कबूतर का जोड़ा
बैठा था उदास 
आकाश की ओर आँखें टिकाये.

मुझे याद नहीं 
यह इतिहास
कितनी बार दोहराया,
कितनी बार घोंसला बनाया,
बच्चे बड़े हुए
और उड़ गए.

लेकिन आज वे थक गये हैं,
सूनी आँखों के सपने
धूमिल हो गये हैं, 
ऊपर उठी नज़र
लौट आती है
आकाश को देखकर,
कोई नज़र नहीं आता.
जिनके लिए घोंसला बनाया था,
जिनको उड़ना सिखाया था.
सूनी आँखों से 
एक दूसरे को देख रहे हैं
लगता है शायद 
गुटरगूं करना भी भूल गये हैं.

उनकी उदासी देखकर
चारों ओर देखता हूँ 
और सोचता हूँ
कि इंसान की ज़िंदगी भी
इनसे कुछ अलग तो नहीं.

Saturday, October 01, 2011

बेटी


नहीं सहन होता 
जब कोई कहता है,
तुम्हारी बेटी
बेटों से बढकर है.

एक वाक्य
लगा देता है प्रश्न चिन्ह 
मेरे वज़ूद पर,
और जगा देता है
एक हीन भाव 
बेटे से कमतर होने का.

क्यों मैं अवांछित रहती हूँ 
जन्म लेने से पहले ही ?
क्यों मैं बन कर रह जाती हूँ
केवल सेकंड ऑप्शन
माँ बाप को
सांत्वना का ?

क्यों कर दिया जाता है
परायी जन्म लेते ही 
और दिलाया जाता है 
अहसास
हमेशा पराया होने का ?

देखे हैं किसी ने
मेरे आंसू  
जो बहे हैं चुपचाप
उनसे दूर
उनकी याद में ?

नहीं बनना चाहती
वारिस 
किसी विरासत का.
काश, मिलती पहचान 
मुझे मेरे अपने अस्तित्व से
और न तुलना की जाती
मेरी किसी बेटे से.