मेरी प्रकाशित पुस्तक 'श्रीमद्भगवद्गीता (भाव पद्यानुवाद)' के कुछ अंश:
अठारहवाँ अध्याय
(मोक्षसन्यास-योग-१८.४९-६०)
जो आसक्तिहीन है सर्वत्र
जीत आत्मा को है वह लेता.
विगतस्पृहा वह सन्यासी
कर्मनिवृत्ति प्राप्त कर लेता. (१८.४९)
नैष्कर्म्यसिद्धि प्राप्त है करके,
कैसे वह प्राप्त ब्रह्म को करता.
जो है ज्ञान की परम उपलब्धि
अर्जुन वह मैं संक्षेप में कहता. (१८.५०)
विशुद्धि बुद्धि से युक्त है होकर
संयमित आत्म धैर्य से करता.
इन्द्रिय विषयों को त्याग कर
राग द्वेष को नष्ट है करता. (१८.५१)
एकांतवासी व अल्प आहारी,
तन मन वाणी संयमित रखता.
ध्यान, योग में लीन सदा ही
पूर्ण वैराग्य का पालन करता. (१८.५२)
अहंकार बल दर्प न जाने,
काम क्रोध परिग्रह तजता.
मोहरहित शांतचित जन
ब्रह्मभाव योग्य है बनता. (१८.५३)
ब्रह्मभाव प्राप्त योगी को
आकांक्षा या शोक न होता.
समभाव रख सब प्राणी में
परमभक्ति प्राप्त है होता. (१८.५४)
मैं जितना और जैसा हूँ
भक्ति से है तत्व जानता.
मेरा तत्व रूप जान कर
मुझमें ही प्रवेश है करता. (१८.५५)
सब कर्मों को है करते भी
जो मेरा ही आश्रय है लेता.
मेरी कृपा से है ज्ञानी जन
परममोक्ष प्राप्त कर लेता. (१८.५६)
सभी कर्म कर मुझे समर्पित
मुझको ही सर्वस्व मान कर.
बुद्धि योग का आश्रय लेकर
मुझमें अपना मन स्थिर कर. (१८.५७)
मुझमें चित्त लगाकर के,
तुम दुक्खों को पार करोगे.
अहंकार तुम्हें नष्ट कर देगा
मेरा कथन यदि नहीं सुनोगे. (१८.५८)
अगर सोचते अहंकार वश
नहीं युद्ध करना है तुमको.
व्यर्थ सोचते प्रकृति तुम्हारी
युद्धप्रवृत्त करेगी तुमको. (१८.५९)
नहीं चाहते कर्म वो करना
वशीभूत मोह के कारण.
इच्छारहित भी करना होगा
प्रकृतिजन्य कर्म के कारण. (१८.६०)
......क्रमशः