Wednesday, December 29, 2010

अलविदा ! वर्ष २०१०

एक और वर्ष
सीने में लाखों दर्द छुपाये 
घिसटते हुए 
दम तोड़ने वाला  है.


कितना सहा,
होठों पर लाकर मुस्कान 
दर्द को कितना छुपाना चाहा.
कब तक कोई
ग़मों से समझौता करता जाए,
कब तक भविष्य के सपनों पर 
वर्तमान का महल बनाये,
जब सपना टूटता है
तो वर्तमान,
भूत से भी ज्यादा 
असहनीय हो जाता है.


क्या क्या नहीं देखा
एक वर्ष के जीवन में,
खेल के नाम पर भ्रष्टाचार 
या भ्रष्टाचार उन्मूलन के नाम पर खेल
सियासत के मैदान में.
उग्रवाद का वीभत्स रूप
बहाता रहा खून मासूमों का
सडकों पर.
हिंसा और बलात्कार की खबरें 
इतनी हुईं आम,
खिसक गयीं 
अखबार के आखिरी पन्ने के
हासिये पर.
बदल दिया 
शहरों को जंगल में,
डरता है हर कोई 
घर से बाहर 
निकलने पर.


शोर है नव वर्ष के स्वागत का
उत्सुक हैं सब उसके स्वागत को,
पर नहीं आया कोई 
जाने वाले  को विदा करने 
सहानुभूति के दो शब्द कहने.
कितना दिया दर्द 
उन्ही अपनों ने जिन्होंने 
एक दिन मेरा भी स्वागत किया था.


थक गया है तन
आहत है अंतर्मन,
सोने दो आज मुझे 
समय की कब्र में
शान्ति से 
ओढ़ कर इतिहास का कफ़न.


देने को कुछ भी नहीं है
नव वर्ष को वसीयत में,
बस यही शुभ कामना है,
नव वर्ष,
तुम लिखो एक नया इतिहास,
बनाओ एक नया भविष्य 
जिस पर न हो
भूतकाल की काली छाया 
और विजय हो  
इंसानियत की हैवानियत पर. 

Friday, December 24, 2010

फिर भी प्यास नहीं बुझ पायी

                  पीडाओं के  घिर आये घन,
                  अश्कों में डूब गया अंतर्मन,
फिर भी प्यास नहीं बुझ पायी अंतस के प्यासे मरुथल की.

छोड़ दिया है साथ आज उर के विश्वासों की सीता ने,
सुखा दिये नयनों के आंसू आज सुलगती पीडाओं ने,
                  अधरों का होता है कम्पन,
                  अनबूझे  रह  जाते बंधन,
छली गयी है आज सदा की तरह आस मम अंतस्तल की.

कौन मीत किसका, कलके साथी अनजाने आज बन गये ,
एक  क्षणिक  अंतर में ही  विश्वासों के  आधार  ढह गये.
                  था कल तक नयनों में अपना पन,
                  है  आज  मगर  अनजाना  पन,
देख अज़नबीपन नयनों में, ठिठक गयी मुस्कान अधर की.

क्या अधरों की भाषा में ही प्रेम व्यक्त करना होता है,
नयनों की भाषा का भी क्या कोई अर्थ  नहीं होता है ,
                  अनबूझे रह गये निमंत्रण,
                  इंतज़ार में बीत गये क्षण,
पल भर में निश्वास बन गयी, मम अंतर की आस मिलन की.

Saturday, December 18, 2010

चौराहा

ज़िन्दगी के इस मोड़ पर 
जब पीछे मुड़कर देखता हूँ ,
दिखाई देते हैं
चौराहे,
कितने मोड़ 
जिन्हें मैंने लिया नहीं,
कितने बढे हुए हाथ
जिनको थामा नहीं,
या फिसल गए 
मेरी पकड़ से.


लेकिन किसने रोका मुझे
उन मोड़ों पर बढ़ने से,
उन हाथों को थामने से.
किसे दोष दूं 
इस सबका ?
मेरा कायरपन,
कर्मफल,
परिस्थितियाँ,
संयोग
या प्रारब्ध.
या यह प्रयास है मेरा
अपनी गलतियों का ठीकरा
दूसरों के सर फोड़ने का.


अब भी आते हैं
सपने में 
वे छोड़े हुए मोड़,
वे बढे हुए हाथ,
और उठाते हैं 
इतने सवाल 
जिनका ज़वाब देने का 
समय फिसल गया है
मेरे हाथों से.


अब तो मुझे 
हर चौराहे पर
कोई रास्ता चुनने में
लगता है बहुत डर,
शायद
यह मोड़ भी गलत न हो.

Monday, December 13, 2010

इंसानियत की मौत

दुर्घटना में घायल आदमी
पड़ा था बीच सड़क पर
सना अपने ही खून में.
दौड़ती कारें
बचकर निकल गयीं,
स्कूटर से उतर कर लोग
तमाशाइयों की भीड़ में
घुस कर देखते 
और आगे बढ़ जाते.
तड़पता रहा घायल
पर बढ़ा नहीं कोई हाथ
उसे उठाने.


सड़क दुर्घटना में मरनेवालों की
संख्या एक और बढ़ गयी,
लेकिन गिनती नहीं हुई 
उस इंसानियत की 
जो उसके साथ ही मर गयी.

Sunday, December 05, 2010

कम्पित हुए अधर कहने को

कम्पित हुए अधर कहने को,  उर में  उर की बात रह गयी, 
यों तो नयनों ने सब कह दी, लेकिन तुम कुछ समझ न पायी.


                उर कि हर अभिव्यक्ति को 
                क्यों बंधन में बांधो भाषा के,
                होजाती जो व्यक्त अजाने
                व्यर्थ यत्न फिर परिभाषा के.


संगम निशा दिवस का प्रतिदिन, है प्रतीक मेरे परिणय का,
दोष किसे दूं, अगर प्रणय की भाषा यह तुम समझ न पायी.


               कलकल बहते निर्झर का स्वर
               क्या कभी समझ पाया तट है.
               सदियों से अविचल खड़ा हुआ 
               अनपेक्षित यह जीवन वट है.


छू कर जो गया पवन तुमको, उसमें भी  था स्पर्श मेरा,
मिलकर झुक गयी द्रष्टि, लेकिन अंतर स्पर्श न कर पायी.


               गिरि की उन्नत बाहें फैलीं 
               आलिंगन में लेने नभ को.
               निष्ठुर क्या कभी समझ पाया
               इस मूक प्रणय अभिनन्दन को.


बढ़ गया  स्वयं अनजाने में, गिरि  की आँखों से बहे अश्रु,
वह अश्रु नदी बन वाष्प मिली,फिर भी अभिव्यक्त न कर पायी.


               रहते छप्पर के एक तले
               फिर भी क्यों हम अनजान रहें.
               अद्रश्य शक्ति से शापित से
               मिल कर भी क्यों वनवास सहें.


तुम इस भौतिक जग की श्रष्टि, शब्दों में नापो अभिव्यक्ति,
स्वप्निल वाणी  लेकिन मेरी,  इसको  स्पष्ट न कर पायी.

Wednesday, December 01, 2010

बिखराव एक स्वप्न का

रोपा था एक पौधा
घर के आँगन में,
आशा में
बड़े होकर देगा फल 
और घनी छांव
जिसके नीचे 
सुकून से बैठूँगा बुढापे में.

तेज धूप से दी उसे छांव, 
जब भी देखा उसको मुरझाते
किया सिंचित और  
सहलाया प्यार से,
उसको बढते देखने में ही
होगयीं सारी खुशियाँ  केंद्रित.

क्या कहूँ 
नियति  का खेल 
या मेरा प्रारब्ध,
आज वह पौधा
जब बन गया विशाल वृक्ष ,
उसके फल
मेरी पहुँच से बहुत ऊँचें,
उसकी छांव पड़ती है
दूसरे आँगन में,
और मैं खड़ा हूँ 
तपती धूप में
ढूंढता ठंडक
अपनी ही परछाईं की
छाया में.