एक और वर्ष
सीने में लाखों दर्द छुपाये
घिसटते हुए
दम तोड़ने वाला है.
कितना सहा,
होठों पर लाकर मुस्कान
दर्द को कितना छुपाना चाहा.
कब तक कोई
ग़मों से समझौता करता जाए,
कब तक भविष्य के सपनों पर
वर्तमान का महल बनाये,
जब सपना टूटता है
तो वर्तमान,
भूत से भी ज्यादा
असहनीय हो जाता है.
क्या क्या नहीं देखा
एक वर्ष के जीवन में,
खेल के नाम पर भ्रष्टाचार
या भ्रष्टाचार उन्मूलन के नाम पर खेल
सियासत के मैदान में.
उग्रवाद का वीभत्स रूप
बहाता रहा खून मासूमों का
सडकों पर.
हिंसा और बलात्कार की खबरें
इतनी हुईं आम,
खिसक गयीं
अखबार के आखिरी पन्ने के
हासिये पर.
बदल दिया
शहरों को जंगल में,
डरता है हर कोई
घर से बाहर
निकलने पर.
शोर है नव वर्ष के स्वागत का
उत्सुक हैं सब उसके स्वागत को,
पर नहीं आया कोई
जाने वाले को विदा करने
सहानुभूति के दो शब्द कहने.
कितना दिया दर्द
उन्ही अपनों ने जिन्होंने
एक दिन मेरा भी स्वागत किया था.
थक गया है तन
आहत है अंतर्मन,
सोने दो आज मुझे
समय की कब्र में
शान्ति से
ओढ़ कर इतिहास का कफ़न.
देने को कुछ भी नहीं है
नव वर्ष को वसीयत में,
बस यही शुभ कामना है,
नव वर्ष,
तुम लिखो एक नया इतिहास,
बनाओ एक नया भविष्य
जिस पर न हो
भूतकाल की काली छाया
और विजय हो
इंसानियत की हैवानियत पर.
Wednesday, December 29, 2010
Friday, December 24, 2010
फिर भी प्यास नहीं बुझ पायी
पीडाओं के घिर आये घन,
अश्कों में डूब गया अंतर्मन,
फिर भी प्यास नहीं बुझ पायी अंतस के प्यासे मरुथल की.
छोड़ दिया है साथ आज उर के विश्वासों की सीता ने,
सुखा दिये नयनों के आंसू आज सुलगती पीडाओं ने,
अधरों का होता है कम्पन,
अनबूझे रह जाते बंधन,
छली गयी है आज सदा की तरह आस मम अंतस्तल की.
कौन मीत किसका, कलके साथी अनजाने आज बन गये ,
एक क्षणिक अंतर में ही विश्वासों के आधार ढह गये.
था कल तक नयनों में अपना पन,
है आज मगर अनजाना पन,
देख अज़नबीपन नयनों में, ठिठक गयी मुस्कान अधर की.
क्या अधरों की भाषा में ही प्रेम व्यक्त करना होता है,
नयनों की भाषा का भी क्या कोई अर्थ नहीं होता है ,
अनबूझे रह गये निमंत्रण,
इंतज़ार में बीत गये क्षण,
पल भर में निश्वास बन गयी, मम अंतर की आस मिलन की.
Saturday, December 18, 2010
चौराहा
ज़िन्दगी के इस मोड़ पर
जब पीछे मुड़कर देखता हूँ ,
दिखाई देते हैं
चौराहे,
कितने मोड़
जिन्हें मैंने लिया नहीं,
कितने बढे हुए हाथ
जिनको थामा नहीं,
या फिसल गए
मेरी पकड़ से.
लेकिन किसने रोका मुझे
उन मोड़ों पर बढ़ने से,
उन हाथों को थामने से.
किसे दोष दूं
इस सबका ?
मेरा कायरपन,
कर्मफल,
परिस्थितियाँ,
संयोग
या प्रारब्ध.
या यह प्रयास है मेरा
अपनी गलतियों का ठीकरा
दूसरों के सर फोड़ने का.
अब भी आते हैं
सपने में
वे छोड़े हुए मोड़,
वे बढे हुए हाथ,
और उठाते हैं
इतने सवाल
जिनका ज़वाब देने का
समय फिसल गया है
मेरे हाथों से.
अब तो मुझे
हर चौराहे पर
कोई रास्ता चुनने में
लगता है बहुत डर,
शायद
यह मोड़ भी गलत न हो.
जब पीछे मुड़कर देखता हूँ ,
दिखाई देते हैं
चौराहे,
कितने मोड़
जिन्हें मैंने लिया नहीं,
कितने बढे हुए हाथ
जिनको थामा नहीं,
या फिसल गए
मेरी पकड़ से.
लेकिन किसने रोका मुझे
उन मोड़ों पर बढ़ने से,
उन हाथों को थामने से.
किसे दोष दूं
इस सबका ?
मेरा कायरपन,
कर्मफल,
परिस्थितियाँ,
संयोग
या प्रारब्ध.
या यह प्रयास है मेरा
अपनी गलतियों का ठीकरा
दूसरों के सर फोड़ने का.
अब भी आते हैं
सपने में
वे छोड़े हुए मोड़,
वे बढे हुए हाथ,
और उठाते हैं
इतने सवाल
जिनका ज़वाब देने का
समय फिसल गया है
मेरे हाथों से.
अब तो मुझे
हर चौराहे पर
कोई रास्ता चुनने में
लगता है बहुत डर,
शायद
यह मोड़ भी गलत न हो.
Monday, December 13, 2010
इंसानियत की मौत
दुर्घटना में घायल आदमी
पड़ा था बीच सड़क पर
सना अपने ही खून में.
दौड़ती कारें
बचकर निकल गयीं,
स्कूटर से उतर कर लोग
तमाशाइयों की भीड़ में
घुस कर देखते
और आगे बढ़ जाते.
तड़पता रहा घायल
पर बढ़ा नहीं कोई हाथ
उसे उठाने.
सड़क दुर्घटना में मरनेवालों की
संख्या एक और बढ़ गयी,
लेकिन गिनती नहीं हुई
उस इंसानियत की
जो उसके साथ ही मर गयी.
पड़ा था बीच सड़क पर
सना अपने ही खून में.
दौड़ती कारें
बचकर निकल गयीं,
स्कूटर से उतर कर लोग
तमाशाइयों की भीड़ में
घुस कर देखते
और आगे बढ़ जाते.
तड़पता रहा घायल
पर बढ़ा नहीं कोई हाथ
उसे उठाने.
सड़क दुर्घटना में मरनेवालों की
संख्या एक और बढ़ गयी,
लेकिन गिनती नहीं हुई
उस इंसानियत की
जो उसके साथ ही मर गयी.
Sunday, December 05, 2010
कम्पित हुए अधर कहने को
यों तो नयनों ने सब कह दी, लेकिन तुम कुछ समझ न पायी.
उर कि हर अभिव्यक्ति को
क्यों बंधन में बांधो भाषा के,
होजाती जो व्यक्त अजाने
व्यर्थ यत्न फिर परिभाषा के.
संगम निशा दिवस का प्रतिदिन, है प्रतीक मेरे परिणय का,
दोष किसे दूं, अगर प्रणय की भाषा यह तुम समझ न पायी.
कलकल बहते निर्झर का स्वर
क्या कभी समझ पाया तट है.
सदियों से अविचल खड़ा हुआ
अनपेक्षित यह जीवन वट है.
छू कर जो गया पवन तुमको, उसमें भी था स्पर्श मेरा,
मिलकर झुक गयी द्रष्टि, लेकिन अंतर स्पर्श न कर पायी.
गिरि की उन्नत बाहें फैलीं
आलिंगन में लेने नभ को.
निष्ठुर क्या कभी समझ पाया
इस मूक प्रणय अभिनन्दन को.
बढ़ गया स्वयं अनजाने में, गिरि की आँखों से बहे अश्रु,
वह अश्रु नदी बन वाष्प मिली,फिर भी अभिव्यक्त न कर पायी.
रहते छप्पर के एक तले
फिर भी क्यों हम अनजान रहें.
अद्रश्य शक्ति से शापित से
मिल कर भी क्यों वनवास सहें.
तुम इस भौतिक जग की श्रष्टि, शब्दों में नापो अभिव्यक्ति,
स्वप्निल वाणी लेकिन मेरी, इसको स्पष्ट न कर पायी.
Wednesday, December 01, 2010
बिखराव एक स्वप्न का
रोपा था एक पौधा
घर के आँगन में,
आशा में
बड़े होकर देगा फल
और घनी छांव
जिसके नीचे
सुकून से बैठूँगा बुढापे में.
तेज धूप से दी उसे छांव,
जब भी देखा उसको मुरझाते
किया सिंचित और
सहलाया प्यार से,
उसको बढते देखने में ही
होगयीं सारी खुशियाँ केंद्रित.
क्या कहूँ
नियति का खेल
या मेरा प्रारब्ध,
आज वह पौधा
जब बन गया विशाल वृक्ष ,
उसके फल
मेरी पहुँच से बहुत ऊँचें,
उसकी छांव पड़ती है
दूसरे आँगन में,
और मैं खड़ा हूँ
तपती धूप में
ढूंढता ठंडक
अपनी ही परछाईं की
छाया में.
Saturday, November 27, 2010
अनाम रिश्ता
कितना हालात ने लाचार किया है मुझको,
पोंछ सकता नहीं आँखों से तुम्हारे आंसू.
मैं यह सह लेता,अगर हाथ किसी का बढ़ता,
देख सकता नहीं दिन रात ये बहते आंसू.
गर मिला होता कोई कांधा तुम्हें रोने को,
फेर कर नज़रें, मैं हट जाता तेरी राहों से.
होता बस में मेरे, दे देता उजाले अपने,
सर्द रातों को तपा देता, मेरी साँसों से.
अब न रिश्ता, न कोई हक़ है करीब आने का,
सिर्फ अहसास का अनजान सा है एक नाता.
ज़िस्म के रिश्ते छुपे रहते हैं चादर में यहाँ,
सिर्फ ज़ज्बात का रिश्ता ही है पत्थर खाता.
कह नहीं सकता कि अब आओ कहीं दूर चलें,
जब ज़मीं अपनी नहीं, आसमां क्यों कर होगा.
बंद खिड़की ये करो, हसरतें जगती दिल में,
खुश्क हैं आँख, मगर दिल भी न क्या तर होगा.
पोंछ सकता नहीं आँखों से तुम्हारे आंसू.
मैं यह सह लेता,अगर हाथ किसी का बढ़ता,
देख सकता नहीं दिन रात ये बहते आंसू.
गर मिला होता कोई कांधा तुम्हें रोने को,
फेर कर नज़रें, मैं हट जाता तेरी राहों से.
होता बस में मेरे, दे देता उजाले अपने,
सर्द रातों को तपा देता, मेरी साँसों से.
अब न रिश्ता, न कोई हक़ है करीब आने का,
सिर्फ अहसास का अनजान सा है एक नाता.
ज़िस्म के रिश्ते छुपे रहते हैं चादर में यहाँ,
सिर्फ ज़ज्बात का रिश्ता ही है पत्थर खाता.
कह नहीं सकता कि अब आओ कहीं दूर चलें,
जब ज़मीं अपनी नहीं, आसमां क्यों कर होगा.
बंद खिड़की ये करो, हसरतें जगती दिल में,
खुश्क हैं आँख, मगर दिल भी न क्या तर होगा.
Monday, November 01, 2010
कैसे दीप जलाऊं मैं
बचपन भीख मांगता है जब चौराहे पर,
यौवन की उम्मीद है बिकती जब कोठे पर.
और बुढ़ापे की सूनी आँखें भी मौत ढूँढती,
कैसे दीप जलाऊं मैं, बतलाओ दर पर.
कहीं रोशनी इतनी आँखें चुंधियाँ जाती,
कहीं अँधेरा इतना, रजनी ठोकर खाती.
हैं दोनों इंसान, मगर यह अंतर क्यों है ?
बेच रहे क्यों झूठ कि यह किस्मत की थाती.
भूखे पेट, नग्न तन बच्चे, ढूंढ रहे कूड़े में खाना,
साड़ी फटी झांकते तन पर,गिद्ध द्रष्टि का लगा निशाना.
बनें योजना कागज़ पर ही,रोटी कपड़ा और मकान की,
भ्रष्ट दानवी हाथों से लेकिन मुश्किल है कुछ बचपाना.
जब तक हर भूखे को रोटी, निर्वस्त्रों को वस्त्र न होंगे,
जब तक नारी की आँखों में लाचारी के अश्रु जो होंगे.
जब तक किलकारी न होगी हर आँगन में बचपन की,
याद रखो भगवन मेरे घर, पकवानों के थाल न होंगे.
Tuesday, October 26, 2010
सत्य की राह
("सतर्कता जागरूकता सप्ताह (Vigilance Awareness Week)" जिसे २५ अक्टूबर से १ नवम्बर तक मनाया जा रहा है को समर्पित )
भोर सुनहरी करे प्रतीक्षा, सत्य मार्ग के राही की,
भ्रष्ट न धो पायेगा अपनी लिखी इबारत स्याही की.
कब तक छुपा सकेगी चादर
दाग लगा जो दामन में,
बोओगे तुम यदि अफीम तो
महके तुलसी क्यों आँगन में.
भ्रष्ट करो मत अगली पीढ़ी अपने निन्द्य कलापों से,
वरना ताप न सह पाओगे, अपनी आग लगाई की.
भ्रष्ट व्यक्ति का मूल्य नहीं है
उसकी केवल कीमत होती.
चांदी की थाली हो, या सूखी पत्तल,
खानी होती है सबको,केवल दो रोटी.
भरलो अपना आज खज़ाना संतुष्टि की दौलत से,
कहीं न कालाधन ले आये तुमको रात तबाही की.
भोर सुनहरी करे प्रतीक्षा, सत्य मार्ग के राही की,
भ्रष्ट न धो पायेगा अपनी लिखी इबारत स्याही की.
कब तक छुपा सकेगी चादर
दाग लगा जो दामन में,
बोओगे तुम यदि अफीम तो
महके तुलसी क्यों आँगन में.
भ्रष्ट करो मत अगली पीढ़ी अपने निन्द्य कलापों से,
वरना ताप न सह पाओगे, अपनी आग लगाई की.
भ्रष्ट व्यक्ति का मूल्य नहीं है
उसकी केवल कीमत होती.
चांदी की थाली हो, या सूखी पत्तल,
खानी होती है सबको,केवल दो रोटी.
भरलो अपना आज खज़ाना संतुष्टि की दौलत से,
कहीं न कालाधन ले आये तुमको रात तबाही की.
Tuesday, October 19, 2010
ताज महल और एक कब्र
लेकिन तुम से श्रेष्ठ कब्र मिट्टी की यह लगती है मुझको.
कौन नहीं इच्छा करता की अपने प्रेम प्रतीक रूप में,
एक नहीं वह दस सुन्दरतम ताजमहल बनवाये.
लेकिन स्वयं अभावों से है ग्रस्त आज का जनजीवन
तो फिर कैसे वह आज ताज की अनुकृति भी रच पाये.
तेरा प्रेम ढोंग है मुझको, केवल धन की बर्बादी है,
इक्षुक नहीं प्रेम इन सबका,वह तो दो उर का संगम है.
मरने पर वह नहीं चाहता कोई यादगार इस जग में,
अभिप्रेत केवल उसको प्रेमी की दो आँखें पुरनम हैं.
तेरा यह अति श्वेत रूप भी मुझको श्याम नज़र आता है,
तुझ से अधिक मूल्य प्रेमी का यह मिट्टी की कब्र बताती.
देख प्रेम की असफलता को,आज स्वयं मुमताज़ यहाँ पर,
पीछे बहती यमुना के मिस, आँखों से है अश्रु बहाती.
मानव कोई छाँव न दे पाया तुमको म्रत्यु अनंतर,
पर प्रकृति ने तान दिया है वृक्ष वितान कब्र के ऊपर.
कोई गीत न गाया जग ने मरने पर तेरी स्मृति में,
पर उलूक ने अपने क्रंदन गीत लुटाये तेरे ऊपर.
शायद तेरा भाग्य नहीं था तू इस जग में नाम कमाता,
लेकिन केवल एक नहीं तू ही अभाग्यशाली इस जग में.
कितने सुन्दर फूल व्यर्थ में झड जाते हैं अनजाने ही,
सजने की उनकी जूडे में रह जाती है चाह ह्रदय में.
महल बनाये जाने कितने, खून पसीना एक कर दिया,
लेकिन मरने पर भी पूरा कफ़न न पाया जग में तूने.
बनकर विश्वरचियता तूने इस जग का निर्माण किया था,
लेकिन मरने पर भी कोई स्मारक न पाया तूने.
देख ताज का वैभव अनुपम, दिल में कसक अज़ब उठती है,
झुक जाती है द्रष्टि देखकर त्रण गुल्मित यह कब्र तुम्हारी.
शोषण पर ही आधारित जो, चमक रहा है आज शुभ्रतर,
जो रत रहा सदां परहित में उसकी है यह कब्र बिचारी .
याद नहीं तुम सदां रहोगे इस दुनियां के जनमानस को,
नहीं रहेगी कोई तेरी यादगार इस जगती तल में.
लेकिन क्या है शोक नहीं गर यादगार इस जग में तेरी,
जब कि प्यार भरा होगा कुछ उन सूनी आँखों के जल में.
(यह कविता कालेज जीवन के अंतिम वर्ष में लिखी थी. कविता बहुत लम्बी है इसलिए इसके कुछ अंश ही पोस्ट कर रहा हूँ)
Friday, October 15, 2010
हार कैसे मान लूं ....
जानता हूँ आंधी में जलाना दीप व्यर्थ है,
रिसती हो नाव तो सागर न पार होता है.
हार कैसे मान लूं , संघर्ष ही किये बिना,
माना बिना सिक्के के व्यापार नहीं होता है.
पैर तो उठा, शूल चुभने दे पाँव में,
बिना कांटे के तो सिर्फ राजपथ होता है.
धूप में निकल, कुछ आने दे स्वेद बिंदु,
फिर भी न मिले तो नसीब वह होता है.
चाँद दिखलाये राह, सबका नसीब कहाँ,
एक तारे का भी क्या सहारा नहीं होता है.
आंधी है तो क्या?ओट हाथ की ज़लाले दीप,
कुछ क्षण का ही क्या उजाला नहीं होता है.
रिसती हो नाव तो सागर न पार होता है.
हार कैसे मान लूं , संघर्ष ही किये बिना,
माना बिना सिक्के के व्यापार नहीं होता है.
पैर तो उठा, शूल चुभने दे पाँव में,
बिना कांटे के तो सिर्फ राजपथ होता है.
धूप में निकल, कुछ आने दे स्वेद बिंदु,
फिर भी न मिले तो नसीब वह होता है.
चाँद दिखलाये राह, सबका नसीब कहाँ,
एक तारे का भी क्या सहारा नहीं होता है.
आंधी है तो क्या?ओट हाथ की ज़लाले दीप,
कुछ क्षण का ही क्या उजाला नहीं होता है.
Monday, October 11, 2010
घर
मकान बनाना
कोई कठिन तो नहीं,
ज़रुरत है
सिर्फ चार दीवार
और ऊपर छत
की.
काश
घर बनाना भी इतना ही
आसान होता.
लेकिन
केवल ईंट, गारा, पत्थर जोड़कर
दीवार और छत बनाने से
घर नहीं बनता,
चाहिए इस के लिये
आपसी विश्वास की ईंट,
स्नेह का गारा,
सहयोग का प्लास्टर
और
बुजुर्गों के सम्मान
की छत.
स्टील, सीमेंट , कंक्रीट
से बने जंगल
जिसमें रहते हैं केवल रोबोट,
परिवार नहीं,
जिसमें रहते हैं केवल रोबोट,
परिवार नहीं,
भरभराकर
गिर रहे हैं,
असहिष्णुता और स्वार्थ
के भूकम्प के
एक हलके झटके से.
प्रेम, विश्वास
की मिट्टी से बनी
कच्ची झोंपड़ियाँ ,
झेल चुकी हैं
जाने कितने भूकम्प के झटके,
और आज भी खड़ी हैं
परस्पर स्नेह और सम्मान
की नींव पर.
मैंने एक घर बनाने की,
लेकिन कहीं नहीं मिला
स्नेह का गारा,
विश्वास की ईंट,
और सम्मान की छत.
जो बना
वह रह गया बनकर
केवल एक मकान,
जो इंतज़ार में है
भरभरा कर गिरने को
स्वार्थ और लालच के
एक हलके भूकम्प के
झटके से.
Wednesday, October 06, 2010
पेट की आग .....
तोडती है पत्थर , तपती हुई धूप में,
कौन आग तेज़ है,पेट की या धूप की .
मेहनत के प्रतिफल से पेट नहीं भर पाया,
जिसने तन को बेचा दुनिया ने ठुकराया,
दोनों ने श्रम बेचा, किसको हम पाप कहें,
दोनों के श्रम पीछे, मज़बूरी थी भूख की.
बचपन सूना सूना, यौवन न गदराया,
यौवन के चहरे पर वृद्धापन गहराया,
नयन के झरोखे से स्वप्न झांकते रहे,
निशा भी चली गयी राह तकते नींद की.
अवगुण छुप जाते,सौने की ज़गमग में,
अनचाहा भार बना,यौवन उसको पग में,
पद्मिनी तुम्हें हर युग में ज़लना ही होगा,
चाहे दहेज़ के नाम, सजा या रूप की.
कौन आग तेज़ है,पेट की या धूप की .
मेहनत के प्रतिफल से पेट नहीं भर पाया,
जिसने तन को बेचा दुनिया ने ठुकराया,
दोनों ने श्रम बेचा, किसको हम पाप कहें,
दोनों के श्रम पीछे, मज़बूरी थी भूख की.
बचपन सूना सूना, यौवन न गदराया,
यौवन के चहरे पर वृद्धापन गहराया,
नयन के झरोखे से स्वप्न झांकते रहे,
निशा भी चली गयी राह तकते नींद की.
अवगुण छुप जाते,सौने की ज़गमग में,
अनचाहा भार बना,यौवन उसको पग में,
पद्मिनी तुम्हें हर युग में ज़लना ही होगा,
चाहे दहेज़ के नाम, सजा या रूप की.
Thursday, September 30, 2010
मैं अपना घर ढूँढ रहा हूँ.......
मन्दिर में भी मैं ही हूँ,
मस्जिद में भी मैं ही हूँ।
क्यों लड़ते हो मेरी खातिर,
हर इन्सां में मैं ही हूँ।
क्या नाम बदलने से मेरा,
अस्तित्व बदल जाता है।
कहो राम,रहीम या जीसस,
रस्ता तो मुझी तक आता है।
मंदिर में हो या मस्जिद में,
सब का सर झुकते देखा है।
क्यों फर्क करो तुम मुझ में,
मैंने सब को सम देखा है।
आती हंसी तुम्हारी मति पर,
मेरे नाम पर लड़ते देखा।
ईश्वर, अल्लाह, राम सभी हैं,
क्या इनको भी लड़ते देखा?
जिसने स्वयं रचा है जग को,
तुम घर बना सकोगे उसका?
क्यों व्यर्थ ढूँढ़ते मंदिर में तुम,
मस्जिद में वह रहता है क्या?
जो तुम चाहो मुझे देखना,
झांको अपने अंतर्मन में।
दुखियों के बहते आंसू में,
और किसी के भूके तन में।
मैं अपना घर ढूँढ रहा हूँ,
मुझे नज़र वह कहीं न आता।
मंदिर मस्जिद दीवारें हैं,
उनसे क्या है मेरा नाता?
मस्जिद में भी मैं ही हूँ।
क्यों लड़ते हो मेरी खातिर,
हर इन्सां में मैं ही हूँ।
क्या नाम बदलने से मेरा,
अस्तित्व बदल जाता है।
कहो राम,रहीम या जीसस,
रस्ता तो मुझी तक आता है।
मंदिर में हो या मस्जिद में,
सब का सर झुकते देखा है।
क्यों फर्क करो तुम मुझ में,
मैंने सब को सम देखा है।
आती हंसी तुम्हारी मति पर,
मेरे नाम पर लड़ते देखा।
ईश्वर, अल्लाह, राम सभी हैं,
क्या इनको भी लड़ते देखा?
जिसने स्वयं रचा है जग को,
तुम घर बना सकोगे उसका?
क्यों व्यर्थ ढूँढ़ते मंदिर में तुम,
मस्जिद में वह रहता है क्या?
जो तुम चाहो मुझे देखना,
झांको अपने अंतर्मन में।
दुखियों के बहते आंसू में,
और किसी के भूके तन में।
मैं अपना घर ढूँढ रहा हूँ,
मुझे नज़र वह कहीं न आता।
मंदिर मस्जिद दीवारें हैं,
उनसे क्या है मेरा नाता?
Sunday, September 26, 2010
बेटी
क्यों बेटा वारिस कहलाता, बेटी सिर्फ पराया धन,
किसने देखा है, इनके अंतर्मन का अपनापन।
क्यों होता है इतना अंतर, इनके लालन पालन में,
क्यों हरदम हर ख़ुशी डालते, बेटे के ही आँचल में।
भूल एक सी दोनों की, पर निर्णय कितना अलग अलग था,
शायद तुम यह समझ न पायीं, यह मेरे अंतर का डर था।
एक प्यार है केवल सतही, छुपा दूसरा गहरे मन में,
आधारित है एक स्वार्थ पर,दूजा अंकित निर्मल मन में।
प्यार देखना चाहो तो, तुम झांको बेटी के नयनों में,
ख़ुशी ढूँढना चाहो तो, तुम ढूँढो उसकी मुस्कानों में।
कितना निर्मम नियम, जो दिल के पास वह तुम से दूर रहेगा,
जो है दिल से दूर बहुत, नज़र दुनियां की में वह वारिस होगा.
किसने देखा है, इनके अंतर्मन का अपनापन।
क्यों होता है इतना अंतर, इनके लालन पालन में,
क्यों हरदम हर ख़ुशी डालते, बेटे के ही आँचल में।
भूल एक सी दोनों की, पर निर्णय कितना अलग अलग था,
शायद तुम यह समझ न पायीं, यह मेरे अंतर का डर था।
एक प्यार है केवल सतही, छुपा दूसरा गहरे मन में,
आधारित है एक स्वार्थ पर,दूजा अंकित निर्मल मन में।
प्यार देखना चाहो तो, तुम झांको बेटी के नयनों में,
ख़ुशी ढूँढना चाहो तो, तुम ढूँढो उसकी मुस्कानों में।
कितना निर्मम नियम, जो दिल के पास वह तुम से दूर रहेगा,
जो है दिल से दूर बहुत, नज़र दुनियां की में वह वारिस होगा.
Friday, September 24, 2010
Friday, September 17, 2010
मुझे घूंट देदो बस विष का ......
क्यों करते हो आस निकालेगा कोई आकर के तुमको,
उलझ गये हो जब अपने ही बुने हुए ताने बाने में.
नहीं कोई भी कन्धा जिस पर
सिर रख कर के तुम रो लेते.
नहीं कोई भी बांह पकड़ कर
जिसको यहाँ संभल तो लेते.
चलो ठीक था अगर डुबाई होती नौका तूफानों ने,
लेकिन धोखा दिया किनारे ने ही हम को अनजाने में.
जितना धूमिल करना चाहा
चित्र तुम्हारा उतना निखरा.
जितना दर्द समेटा उर में
उतना ही नयनों से बिखरा.
जाना ही था अगर तुम्हें तो ले जाती यादें भी अपनी,
नहीं घुमड़ती रहतीं जिससे यह मेरे इस वीराने में.
क्या अब कुछ जीवन से मांगे,
इतना ही है बोझ बन गया.
क्या होगा फिर प्यार ढूंढ़ कर,
यही स्वयं जब रोग बन गया.
ले जाओ अमृत अपना यह, मुझे घूंट देदो बस विष का,
इतना मोह म्रत्यु से अब तो सफल न होगी बहकाने में.
उलझ गये हो जब अपने ही बुने हुए ताने बाने में.
नहीं कोई भी कन्धा जिस पर
सिर रख कर के तुम रो लेते.
नहीं कोई भी बांह पकड़ कर
जिसको यहाँ संभल तो लेते.
चलो ठीक था अगर डुबाई होती नौका तूफानों ने,
लेकिन धोखा दिया किनारे ने ही हम को अनजाने में.
जितना धूमिल करना चाहा
चित्र तुम्हारा उतना निखरा.
जितना दर्द समेटा उर में
उतना ही नयनों से बिखरा.
जाना ही था अगर तुम्हें तो ले जाती यादें भी अपनी,
नहीं घुमड़ती रहतीं जिससे यह मेरे इस वीराने में.
क्या अब कुछ जीवन से मांगे,
इतना ही है बोझ बन गया.
क्या होगा फिर प्यार ढूंढ़ कर,
यही स्वयं जब रोग बन गया.
ले जाओ अमृत अपना यह, मुझे घूंट देदो बस विष का,
इतना मोह म्रत्यु से अब तो सफल न होगी बहकाने में.
Saturday, September 11, 2010
अभी मरघट दूर है.........
ठहर
थोडा सुस्ताले,
कब तक ढोता जायेगा,
अपने जीवन की लाश
अपने कन्धों पर,
अभी मरघट दूर है........
रोता है,
पागल,
अपनी ही मौत पर
कहीं रोया करते हैं.
तू ज़िन्दगी का मसीहा,
जिसने कभी हार नहीं मानी,
आज अपनी ही मौत से घबराता है.
यह विक्रमादित्य के कंधे पर रखा हुआ
वैताल का शव नहीं
जो मौन भंग होने पर
फिर पेड़ पर जाकर बैठ जाए
और कन्धों का बोझ हलका कर दे,
इसे तो तुम्हें मरघट तक ढोना ही होगा.
माना बहुत बोझ है,
लेकिन
दूसरों के कन्धों पर जाने से बेहतर है
कि अपनी लाश को
अपने ही कन्धों पर ले जाकर
मरघट में
अपने ही हाथों से अग्नि को सोंप दिया जाये.
क्या अफ़सोस है
कि तेरी लाश पर
किसी ने दो गज कफ़न भी नहीं डाला?
क्या दो गज कफ़न का टुकड़ा
इतने लम्बे सफ़र के लिए काफी होता?
ओढ़ ले अपनी बीती यादों का कफ़न
जो जितना पुराना होता जायेगा,
उतना ही और नया लगेगा,
जिस तरह कि हर नयी चोट
पुरानी यादों को और भी
उभार जाती है.
अपने इन आंसुओं को
व्यर्थ में मत बहा,
अभी तो इन्ही से तुझे अपना तर्पण करना है.
चल उठ,
अँधेरा बढ़ रहा है
और तुझे बहुत दूर चलना है,
उठाले अपने जीवन की लाश,
अपने ही कन्धों पर,
अभी मरघट दूर है..........
थोडा सुस्ताले,
कब तक ढोता जायेगा,
अपने जीवन की लाश
अपने कन्धों पर,
अभी मरघट दूर है........
रोता है,
पागल,
अपनी ही मौत पर
कहीं रोया करते हैं.
तू ज़िन्दगी का मसीहा,
जिसने कभी हार नहीं मानी,
आज अपनी ही मौत से घबराता है.
यह विक्रमादित्य के कंधे पर रखा हुआ
वैताल का शव नहीं
जो मौन भंग होने पर
फिर पेड़ पर जाकर बैठ जाए
और कन्धों का बोझ हलका कर दे,
इसे तो तुम्हें मरघट तक ढोना ही होगा.
माना बहुत बोझ है,
लेकिन
दूसरों के कन्धों पर जाने से बेहतर है
कि अपनी लाश को
अपने ही कन्धों पर ले जाकर
मरघट में
अपने ही हाथों से अग्नि को सोंप दिया जाये.
क्या अफ़सोस है
कि तेरी लाश पर
किसी ने दो गज कफ़न भी नहीं डाला?
क्या दो गज कफ़न का टुकड़ा
इतने लम्बे सफ़र के लिए काफी होता?
ओढ़ ले अपनी बीती यादों का कफ़न
जो जितना पुराना होता जायेगा,
उतना ही और नया लगेगा,
जिस तरह कि हर नयी चोट
पुरानी यादों को और भी
उभार जाती है.
अपने इन आंसुओं को
व्यर्थ में मत बहा,
अभी तो इन्ही से तुझे अपना तर्पण करना है.
चल उठ,
अँधेरा बढ़ रहा है
और तुझे बहुत दूर चलना है,
उठाले अपने जीवन की लाश,
अपने ही कन्धों पर,
अभी मरघट दूर है..........
Thursday, September 02, 2010
कृष्ण को गुहार
कहाँ खो गये हो मुरलीधर,
ढूंढ़ रहे हैं भारतवासी।जय घोषों से गूंजें मंदिर,
पर अंतर में गहन उदासी।
नारी की है लाज लुट रही,
नहीं द्रोपदी आज सुरक्षित।
मंदिर रोज नए बनते हैं,
पर मानव है छत से वंचित।
लाखों के अब मुकुट पहन कर,
विस्मृत किया सुदामा को क्यों?
व्यंजन सहस्त्र सामने हों जब,
कोदो सवां याद आये क्यों?
मुक्त करो अपने को भगवन
धनिकों के मायाजालों से।
मत तोड़ो विश्वास भक्त का,
मुक्त करो अब जंजालों से।
तुमने ही आश्वस्त किया था,
जब भी होगा नाश धर्म का।
आऊंगा मैं फिर धरती पर
करने स्थापित राज्य धर्म का।
बाहर आओ अब तो भगवन
मंदिर की इन दीवारों से ।
नहीं बनो रनछोड़ दुबारा,
करो मुक्त अत्याचारों से।
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