ढलका नयनों से
नहीं बढ़ी
कोई उंगली
थामने पोरों पर,
गिरा सूखी रेत में
खो दिया अपना अस्तित्व,
शायद यही नसीब था
मेरे अश्क़ों का।
थामने पोरों पर,
गिरा सूखी रेत में
खो दिया अपना अस्तित्व,
शायद यही नसीब था
मेरे अश्क़ों का।
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आज लगा कितना अपना सा
सितारों की भीड़ में तनहा चाँद
सदियों से झेलता दर्द
प्रति दिन घटते बढ़ने का,
जब भी बढ़ता वैभव
देती चाँदनी भी साथ
लेकिन होने पर अलोप
अस्तित्व प्रकाश का
कोई भी न होता साथ.
सितारों की भीड़ में तनहा चाँद
सदियों से झेलता दर्द
प्रति दिन घटते बढ़ने का,
जब भी बढ़ता वैभव
देती चाँदनी भी साथ
लेकिन होने पर अलोप
अस्तित्व प्रकाश का
कोई भी न होता साथ.
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काटते रहे अहसास
फसल शब्दों की,
और कुचल गए शब्द
मौन के पैरों तले।
फसल शब्दों की,
और कुचल गए शब्द
मौन के पैरों तले।
...©कैलाश शर्मा