Saturday, March 29, 2014

जीवन और मृत्यु का संघर्ष

 रश्मि प्रभा जी और किशोर खोरेन्द्र जी द्वारा संपादित काव्य-संग्रह 'बालार्क' में शामिल मेरी रचनाओं में से एक रचना 


जीवन और मृत्यु का संघर्ष
देखा है मैंने
खुली आंखों से.

केंसर अस्पताल का प्रतीक्षालय
आशा निराशा की झलक
शून्य में ताकते चेहरे,
मृत्यु की उंगली छोड़
ज़िंदगी का हाथ
पकड़ने की कोशिश,
गोल मोल मासूम बच्चा
माँ की गोद में
खेलता खिलखिलाता
अनजान हालात से
अपनी और आस पास की,
पर माँ की आँखें नम
गोद सूनी न हो जाये
इसका था गम.

हाँ मैंने सुनी है
मौत के कदमों की आहट,
रात के सन्नाटे में
हिला देती अंतस को
एक चीख
जिसे दबा देते  
नर्स और स्टाफ कुछ पल में,
पाता सुबह  
बराबर के कमरे में
एक नया मरीज़
एक नया चेहरा,
हाँ, कल रात
ज़िंदगी फिर मौत से हार गयी.

कीमोथेरेपी का ज़हर
जब बहने लगता नस नस में
अनुभव होता जीते जी जलने का,
जीने की इच्छा मर जाती
सुखकर लगती इस दर्द से मुक्ति
मृत्यु की बाहों में.
जीवन और मृत्यु की इच्छा का संघर्ष
हाँ, देखा है मैंने अपनी आँखों से.

कितना कठिन है देखना
किसी अपने की आँखों में
दर्द का सैलाब  
और जीवन मुक्ति की चाह,
देना झूठे आश्वासन
करते हुए
निश्चित मृत्यु का इंतज़ार.

जीवन और मृत्यु
दोनों ही अवश्यम्भावी  
और उनका स्वागत
ग़र आयें सुकून से,
दोनों के बीच का संघर्ष
देता है असहनीय पीड़ा
जिसे देखा है मैंने अपनी आँखों से.

आज भी जीवंत हैं
वे पल जीवन के,
कांप जाती है रूह
जब भी गुज़रता
उस सड़क से.


....कैलाश शर्मा 

Thursday, March 20, 2014

श्रीमद्भगवद्गीता-भाव पद्यानुवाद (१७वां अध्याय)

                                  मेरी प्रकाशित पुस्तक 'श्रीमद्भगवद्गीता (भाव पद्यानुवाद)' के कुछ अंश: 
         सत्रहवाँ अध्याय 
(श्रद्धात्रयविभाग-योग-१७.१४-२८

देव ब्राह्मण ज्ञानी जन का
और गुरु का पूजन करते.
शुचिता अहिंसा ब्रह्मचर्य 
तप संपन्न शरीर से कहते.  (१७.१४)

बुरी न लगे ऐसी वाणी हो,
प्रिय हितकारी और सत्य है.
स्वाध्याय विद्या में प्रवृति
वह होता वाणी का तप है.  (१७.१५)

मौन सौम्यता भाव शुचिता
प्रसन्नता व आत्मसंयम है.
ऐसे भाव है जो जन रखता 
कहते उसे मानसिक तप है.  (१७.१६)

फल कामना रहित व श्रद्धा से   
एकाग्र चित्त होकर जो करते.
पूर्वोक्त त्रिविध श्रद्धा से करता 
उस तप को सात्विक हैं कहते.  (१७.१७)

सत्कार मान श्रद्धा के हेतु 
दम्भ पूर्व जो तप हैं करते.
जो अनित्य क्षणिक है होता
उसे राजसिक तप हैं कहते.  (१७.१८)

मूढ़ दुराग्रह के कारण से 
निज शरीर को पीड़ा देते.
दूजों के विनाश के हेतु 
वे तामसिक तप हैं करते.  (१७.१९)

योग्य पात्र को दान हैं देता,
देश काल ध्यान में रखके.
वह ही दान सात्विक होता,
देते जिसे कर्तव्य समझके.  (१७.२०)

प्रत्युपकार या फल इच्छा से
जो भी दान दिया है जाता.
दान मानसिक कष्ट से देना
वह राजसिक है माना जाता.  (१७.२१)

गलत जगह और समय पर 
जो अपात्र को दिया है जाता.
तिरस्कारपूर्व सत्कारहीन जो 
दान तामसिक है कहलाता.  (१७.२२)

ॐ तत् सत् तीनों प्रकार से
ब्रह्म प्रतीक हैं जाने जाते.
ब्राह्मण वेद यज्ञ सृष्टि में 
उनसे उत्पन्न हैं जाने जाते.  (१७.२३)

शास्त्र विधि तप दान क्रियायें
अतः वेद वेत्ता जब करते.
आरम्भ सदा करने से पहले 
  शब्द उच्चारण करते.  (१७.२४)

बिना कामना फल इच्छा की 
दान यज्ञ  और तप जो करते.
मोक्ष प्राप्ति के इक्षुक हैं जो 
पहले तत् का उच्चारण करते.  (१७.२५)

सद् भाव व श्रेष्ठ भाव में
सत् शब्द प्रयोग हैं करते.
उत्तम कर्मों में भी अर्जुन 
सत् शब्द प्रयोग हैं करते.  (१७.२६)

यज्ञ दान और तप में भी 
स्थिर रहना सत् कहलाता.
उनसे संबंधित जो कर्म है
वह भी अर्जुन सत् कहलाता.  (१७.२७)

दान यज्ञ तप कर्म है अर्जुन 
श्रद्धा बिना असत् कहलाता.
उसका लाभ न जग में होता 
न ही है वह परलोक में पाता.  (१७.२८)

**सत्रहवाँ अध्याय समाप्त**

                  ....क्रमशः

...कैलाश शर्मा 

Saturday, March 15, 2014

अब न खेलूंगी श्याम संग होरी

अब न खेलूंगी श्याम संग होरी.
बहुत सतावे है वह मोको, बहुत करे बरजोरी.  
चुनरी भीग गयी है मोरी, भीग गयी है चोरी.   
कैसे जाऊं मैं अब घर पे, देख रहीं सब छोरी.   
कान्हा शरम न आवै तुमको, हरदम सूझे होरी.  
आओगे जब बरसाने, समझोगे तब तुम होरी.    
प्रेम रंग बरसे है ब्रज में, कैसे रहती कोरी.
भीग रंग में तेरे कान्हा, बनी सदा को तोरी.    

होली की
हार्दिक शुभकामनायें 

....कैलाश शर्मा 

Friday, March 07, 2014

अनुत्तरित प्रश्न

मुझसे उत्तर मत मांगो बेटी,
यह प्रश्न अनुत्तरित रहने दो.

आकर सपने में तुम बेटी,               
एक प्रश्न रोज़ करती माँ से.
क्यों मौन रहीं तुम माँ होकर,
जब रोका जग में आने से?

मैं कैसे तुमको समझाऊँ बेटी,
उस पल थी क्यों मौन रही?
रोम रोम तड़पा था तब मेरा,
जब तुझको आने दिया नहीं.

मैं नहीं चाहती थी मेरी बेटी
आफ़रीन बन दुनिया में आये.
परिवार की बेटे की चाहत में,
तुझको न कहीं दुत्कारा जाये.

कैसे तुम को बतलाऊँ मैं बेटी?
न समझोगी दर्द विवशता का.
कितने स्वप्न बुने मेरे मन ने
हर ताना बुनते तेरे स्वेटर का.

पर अब न ऐसा फिर होने दूंगी,
मेरी गोदी में तुझको आना होगा.
चाहे दुनिया हो जाये एक तरफ़,
तुझको फ़िर घर में लाना होगा.

अब मुझको न समझो अशक्त,
सह लिया दर्द अबला बन कर.
अब कमज़ोर न होंगे हाथ मेरे,
कर सकती रक्षा दुर्गा बन कर.

तुम्हें सिखाऊँगी जग से लड़ना,
तुमको अशक्त न मैं बनने दूँगी.
जाग गयी मेरे अन्दर की नारी,
जन्म पूर्व तुझको न मरने दूँगी.


...कैलाश शर्मा