Tuesday, July 30, 2013

हाइकु

 (१)
अंतिम यात्रा
कितनी आँखें नम
है उपलब्धि.

 (२)
धन दौलत
क्यों इतना गरूर 
सब नश्वर.

 (३)
खाली थे हाथ
खाली ही ये जायेंगे
क्यों है घमंड.

 (४)
सुव्यवहार
प्रेम और नम्रता
हारा गरूर.

 (५)
कैसा गरूर         
किस पर गरूर
क्या है तुम्हारा ?

 (६)
यात्रा हो कोई
सत्कर्म देंगे साथ
मंजिल तक.

 (७)
आये शून्य से           
भूले अंतराल में
जाना शून्य में.

 (८)
जियो आज़ में          
मत बिगाड़ो कल
डूब कल में.

 (९)
दिखाता सत्य                 
अंतस का आईना
मानें या नहीं.

 (१०)
आस्था की नाव       
तूफ़ान गए हार
सागर पार.

.....कैलाश शर्मा 

Wednesday, July 24, 2013

आख़िरी सफ़र

कितने भारी लगते             
एक एक पल
मंजिल के निकट आने पर,
थके कदम करते इंकार
आगे बढ़ने को,
टूटे अहसासों का बोझ
चाहता बह जाना
अश्क़ों में.

थके कदमों को
रुकने दें कुछ देर
आख़िरी मंज़िल से पहले,
बहने दें अश्क़ों में
टूटे अहसासों का बोझ,
होने दें शांत कुछ पल
रिश्तों से मिली जलन,
मिलेगा कुछ तो सुकून
और कम होगा कुछ बोझ
शेष यात्रा में.


...कैलाश शर्मा

Saturday, July 20, 2013

‘हिन्दी-हाइगा’ – शब्दों और चित्रों का अद्भुत संगम

ॠता शेखर ‘मधु’ जी की सद्य प्रकाशित आकर्षक पुस्तिका ‘हिन्दी–हाइगा’ हाथ में आते ही पृष्ठ पलटने का लोभ संवरण नहीं कर पाया और कुछ ही देर में अनुभूत होने लगा कि मैं पुस्तिका के नहीं बल्कि एक सुन्दर आर्ट पेपर पर छपे ऐसे कैलेंडर के पृष्ठ पलट रहा हूँ जो वर्ष समाप्त होने पर भी दीवार से उतारने का दिल नहीं करता.

हाइगा विधा पर यह शायद प्रथम और एक उत्कृष्ट पुस्तिका है. हाइगा एक जापानी विधा है जो दो शब्द हाइ और गा को मिला कर बना है. हाइ शब्द का अर्थ है हाइकु (कविता) और गा का अर्थ है रंग चित्र या चित्रकला. हाइकु तीन पंक्तियों और ५-७-५ शब्दों की एक लोकप्रिय और सशक्त काव्य विधा है. हाइकु और चित्र का संयोजन हाइगा है जिसे चित्र-कविता या काव्य-चित्र कहा जा सकता है. जापान में यह विधा १७वीं शताब्दी में शुरू हुई जब इसे रंग और ब्रुश से बनाया जाता था, लेकिन आजकल इसके लिए डिजिटल फोटोग्राफी तकनीक का प्रयोग किया जाता है.

हाइगा केवल चित्र के ऊपर हाइकु लिखना मात्र नहीं है. हाइगा की प्रभावी प्रस्तुति हाइकु और चित्र दोनों के उत्कृष्ट संयोजन पर निर्भर है. तीन पंक्तियों और १७ शब्दों में भावों की प्रभावी और सम्पूर्ण अभिव्यक्ति हाइकु की सफलता का मूल मन्त्र है. हाइकु के भावों के उपयुक्त चित्र चयन एक आसान काम नहीं है. एक अच्छे हाइगा में शब्द (हाइकु) चित्र के भावों को मुखरित कर देते हैं, वहीं चित्र शब्दों को जीवंत कर देता है. ॠता जी ने इन दोनों क्षेत्रों में अपनी अद्भुत क्षमता का परिचय दिया है. ‘हिन्दी-हाइगा’ में संयोजित प्रत्येक हाइगा इस कसौटी पर खरा उतर कर अंतस को गहराई तक छू जाता है.
















बहुमुखी प्रतिभा की धनी ॠता शेखर ‘मधु’ जी ने हिंदी ब्लॉग जगत को अपने ब्लॉग ‘हिन्दी-हाइगा’ (http://hindihaiga.blogspot.in/) के द्वारा न केवल हाइगा से परिचित कराया, बल्कि वे इस क्षेत्र में एक सशक्त हस्ताक्षर भी हैं. उनके ब्लॉग पर अनेक रचनाकारों के हाइकु पर आधारित १००० से अधिक हाइगा उपलब्ध हैं और उनमें से ३६ रचनाकारों के उत्कृष्ट हाइकु पर आधारित हाइगा इस पुस्तिका में संकलित हैं. प्रत्येक हाइगा में चित्रों का चयन हाइकु के भावों को जीवंत कर गया है. हाइकु के भावों की गहराई और  उपयुक्त चित्रों के संयोजन के सौन्दर्य के बारे में शब्दों में कुछ कहना बहुत कठिन है, इसे केवल महसूस किया जा सकता है.


                       













पुस्तिका के उत्कृष्ट सम्पादन, आवरण, संकलन एवं संयोजन के लिए ॠता जी बधाई की पात्र हैं. कॉफ़ी टेबल बुक की तरह ख़ूबसूरत, अपनी तरह की एक अनूठी और शायद इस विधा की सर्व प्रथम यह पुस्तिका निश्चय ही संग्रहणीय है और पाठकों को अवश्य पसंद आयेगी.


पुस्तक प्राप्ति के लिए ॠता शेखर ‘मधु’ जी से hrita.sm@gmail.com पर संपर्क कर सकते हैं.

....कैलाश शर्मा 

Tuesday, July 16, 2013

श्रीमद्भगवद्गीता-भाव पद्यानुवाद (५४वीं कड़ी)

                                  मेरी प्रकाशित पुस्तक 'श्रीमद्भगवद्गीता (भाव पद्यानुवाद)' के कुछ अंश: 

            तेरहवां अध्याय 
(क्षेत्रक्षेत्रज्ञविभाग-योग-१३.२७-३४)

समत्व भाव से सब प्राणी में
परमात्मा को जो है देखता.
जो विनाश अविनाशी समझे
मुझे वस्तुतः वही देखता.  (१३.२७)

सम भाव से स्थित ईश्वर को 
सब में है जो समान समझता.
नष्ट स्वयं को न करे आत्म से 
वही परम गति प्राप्त है करता.  (१३.२८)

प्रकृति सभी कर्म करती है
आत्मा नहीं कर्म का कर्ता.
जो भी इसको जान है लेता
वही परम सत्य का ज्ञाता.  (१३.२९)

समस्त चराचर प्राणि भेद को
एक प्रकृति में स्थित है देखता.
ब्रह्म प्राप्त करता वह साधक 
प्रकृति में से ही विस्तार देखता.  (१३.३०)

है निर्गुण अनादि अव्यय परमेश्वर
यद्यपि निवास शरीर में होता.
फिर भी न वह कुछ कर्म है करता 
और न लिप्त कर्मफलों से होता.  (१३.३१)

जैसे आकाश सूक्ष्म होने से 
सर्वव्याप्त कर लिप्त न होता.
तदा शरीर में स्थित आत्मा 
गुण दोषों से लिप्त न होता.  (१३.३२)

जैसे एक सूर्य हे अर्जुन!
सम्पूर्ण लोक प्रकाशित करता.
वैसे ही स्वामी परमात्मा 
समस्त शरीर प्रकाशित करता.  (१३.३३)

अपने ज्ञान चक्षुओं द्वारा 
जो क्षेत्र क्षेत्रज्ञ का भेद जानता.
करता प्राप्त परम पद है वो 
प्रकृतिमुक्ति की युक्ति जानता.  (१३.३४)


**तेरहवां अध्याय समाप्त**

               ......क्रमशः

.....कैलाश शर्मा 

Monday, July 08, 2013

अहम् ब्रह्मास्मि

‘अहम् ब्रह्मास्मि’
नहीं है सन्निहित
कोई अहंकार इस सूत्र में,
केवल अक्षुण विश्वास
अपनी असीमित क्षमता पर.
 
‘मैं’ ही व्याप्त समस्त प्राणी में
‘मैं’ ही व्याप्त सूक्ष्मतम कण में
क्यों मैं त्यक्त करूँ इस ‘मैं’ को,
करें तादात्म जब अपने इस ‘मैं’ का
अन्य प्राणियों में स्थित ‘मैं' से
होती एक अद्भुत अनुभूति
अपने अहम् की,
नहीं होता अहंकार या ग्लानि
अपने ‘मैं’ पर.

असंभव है आगे बढ़ना
अपने ‘मैं’ का परित्याग कर के,
यही ‘मैं’ तो है एक आधार
चढ़ने का अगली सीढ़ी ‘हम’ की,
अगर नहीं होगा ‘मैं’
तो कैसे होगा अस्तित्व ‘हम’ का,
सब बिखरने लगेंगे
उद्देश्यहीन, आधारहीन दिवास्वप्न से.

‘मैं’ केवल जब ‘मैं’ न हो
समाहित हो जाये उसमें ‘हम’ भी
तब नहीं होता कोई कलुष या अहंकार,
दृष्टिगत होता रूप
केवल उस ‘मैं’ का
जो है सर्वव्यापी, संप्रभु,
और हो जाता उसका ‘मैं’
एकाकार मेरे ‘मैं’ से.

असंभव है यह सोचना भी
कि नहीं कोई अस्तित्व ‘मैं’ का,
यदि नहीं है ‘मैं’
तो नहीं कोई अस्तित्व मेरा भी,
‘मैं’ है नहीं मेरा अहंकार
‘मैं’ है मेरा विश्वास
मेरी संभावनाओं पर
मेरी क्षमता पर,
जो हैं सन्निहित सभी प्राणियों में
जब तक है उनको आभास
अपने ‘मैं’ का.


...कैलाश शर्मा 

Tuesday, July 02, 2013

आज़ ज़ज्बातों को गंगा में बहा आया हूँ

आज़ ज़ज्बातों को गंगा में बहा आया हूँ,
टूटे ख़्वाबों को मैं खुद ही ज़ला आया हूँ.

अब न पैरों में चुभेंगी यादों की किरचें,
मैं उन्हें उनको ही सौगात में दे आया हूँ.

अब न रिश्ते की ज़रुरत है, न रहबर की,
साथ तनहाई को मैं अब घर ले आया हूँ.

मौन की भाषा समझ पायी है कब दुनियां,
बाद खोने के तुम्हें अब ये समझ पाया हूँ.

अब न अहसास के ज़ंगल में भटकना होगा,
आज मैं दिल को पत्थर से बदल लाया हूँ.

...कैलाश शर्मा