मेरी प्रकाशित पुस्तक 'श्रीमद्भगवद्गीता (भाव पद्यानुवाद)' के कुछ अंश:
सोलहवाँ अध्याय
(दैवासुरसम्पद्विभाग-योग-१६.१३-२४)
इतना आज है मैंने पाया
अमुक मनोरथ पूर्ण करूँगा.
इतना धन है पास में मेरे
इतना ही फिर प्राप्त करूँगा. (१६.१३)
इस शत्रु को नष्ट किया है,
अन्य शत्रु को भी मारूंगा.
मैं ईश्वर मैं सिद्ध मैं भोगी
मैं बलवान, मैं सुखी रहूँगा. (१६.१४)
मैं ही धनी कुलीन व दानी,
दूजा मेरे सम कैसे हो सकता.
यज्ञ करूँगा, हर्ष पाऊंगा,
भ्रमित है वह अज्ञान में रहता. (१६.१५)
जिनका मन विभ्रांत है रहता,
मोह जाल में जकडे रहते.
भोगों में आसक्ति है जिनकी
वे अपवित्र नरक में गिरते. (१६.१६)
स्वयं श्रेष्ठ मानें अपने को,
धन अभिमान युक्त हैं रहते.
शील रहित, नाम पाने को
दंभपूर्ण अविधि यज्ञ हैं करते. (१६.१७)
अहंकार बल दर्प से पूरित
काम क्रोध का आश्रय लेते.
प्राणी जगत शरीर में स्थित
मुझसे ही वह द्वेष हैं करते. (१६.१८)
क्रूर और अधम मनुजों को
जो मुझसे द्वेष है करता.
ऐसे मनुजों को मैं निरंतर
असुर योनि भेजता रहता. (१६.१९)
प्राप्त न करके मुझे मूढ़ जन,
सतत असुर योनि में जाते.
फिर उससे भी अधम योनियां
उनमें जन्म जन्मांतर जाते. (१६.२०)
काम क्रोध और लोभ हैं,
तीन नरक के द्वार कहाते.
त्याग इन्हें चाहिए देना
ये आत्मा नाशक कहलाते. (१६.२१)
नरक द्वार रूप इन दोषों से
मनुज मुक्त है जब हो जाता.
आत्मकल्याण कर्मको करके
प्राप्त परम गति को हो जाता. (१६.२२)
त्याग शास्त्रोक्त विधि को
इच्छा अनुसार आचरण करता.
वह सिद्धि या सुख न पाता
न ही परमगति प्राप्त है करता. (१६.२३)
युक्त है करना या न करना
शास्त्रों में प्रमाण है तुमको.
शास्त्रविहित कर्म जानकर
करने कर्म चाहिये तुमको. (१६.२४)
**सोलहवां अध्याय समाप्त**
.......क्रमशः
....कैलाश शर्मा