Saturday, December 31, 2011

हे आने वाले वर्ष तुम्हारा अभिनन्दन

  हे जाने वाले वर्ष तुम्हारा अभिनन्दन,
नव जाग्रति लाने वाले, तेरा अभिनन्दन.


कुछ बीज नये बोये थे तुमने आँगन में,
प्रस्फुटित हो रहे अब मिट्टी के सीने से,
सोयी जनता ने ली है फिर से अंगड़ाई,
अनुपम उपलब्धि पर करते तेरा वन्दन.



जाने वाले को याद नहीं रखते जग में,
तुमको विस्मृत इतिहास नहीं होने देंगे,
ज्वालामुखी जगाया तुमने जन जन में,
मुट्ठी बन कर के हाथ करें, तेरा वन्दन.



नव वर्ष,विरासत की तुम रक्षा करना,
नन्हे पौधे बन वृक्ष लड़ें हर आंधी से,
भ्रष्टाचार जलायें बन प्रहलाद सभी,
ज्योतिर्मय हर पल, आगंतुक वन्दन.


हे आने वाले वर्ष तुम्हारा अभिनन्दन,
नव आशाओं के दीप जलें,तेरा वन्दन.


नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं !

कैलाश शर्मा 

Friday, December 23, 2011

क्षणिकाएं

     (१)
बर्फ़ हो गये अहसास
जम गया लहू
ठण्ड के मौसम में,
वर्ना गुज़र नहीं जाते
बचा कर नज़रें 
सड़क के किनारे
फटी चादर ओढ़ कर
ठण्ड से कंपकपाते 
सोने की कोशिश करते 
बच्चों को देख कर.


     (२)
घने कोहरे ने 
खींच दी दीवार
सब के बीच,
और कर दिया अकेला
अकेलेपन को भी
महानगरों में.


     (३)
बाँध कर पोटली यादों की
डुबो दी है
झील के गहरे तल में.


मत फेंको कंकड़ 
झील के शांत तल में,
खुल जायेगी पोटली 
बिखर जायेंगी यादें
और उठने लगेंगी लहरें
फिर शांत जल में.


     (४)
गुज़र गयी रात
संघर्ष करते नींद से,
जब भी ली करवट
चुभने लगे कांटे 
यादों के.


कैलाश शर्मा

Tuesday, December 20, 2011

कितना खोया कितना पाया

(जन्मदिन पर एक आत्मविश्लेषण)


कितना खोया कितना पाया,
कितना जीवन व्यर्थ गंवाया?
जितने स्वप्न कभी देखे थे,
कितने उनको पूरा कर पाया?


जितनी सीढ़ी चढ़ा था ऊपर,
उतना ही क्यों नीचे पाया.
जिसको समझा था मैं मंजिल,
उसको भूल भुलैया पाया.


आगे बढ़ने की चाहत में,
कितने ख़्वाबों को बिसराया.
मुड़ कर पीछे अब जब देखा,
अपना साया भी हुआ पराया.


जिन रिश्तों को अपना समझा,
वे रिश्ते अनजान बन गये.
छुपा रखा था जिन अश्कों को,
वे आँखों से आज ढल गये.


पछताने का वक़्त नहीं अब,
नहीं स्वप्न कोई अब कल का.
सूनी आँखें ताक रहीं पथ,
इन्तज़ार अब अन्तिम पल का.

कैलाश शर्मा 

Friday, December 16, 2011

एक मुट्ठी धूप

महानगर की चकाचोंध 
और कोलाहल में
सिमट कर रह गया अस्तित्व
कमरे की ठंडी मौन
चार दीवारों में.


आता है याद 
गाँव के घर का आँगन
और गुनगुनी धूप,
न समाप्त होती बातें
खाते हुए भुनी मूंगफली.


ले तो आये थे गाँव से
अपने आप को
और इकठ्ठा कर लीं 
सब सुख सुविधाएं चारों ओर,
पर भूल गये लाना 
रिश्तों की गर्मी 
और एक मुट्ठी धूप 
आँगन की.

कैलाश शर्मा 

Saturday, December 10, 2011

क्षणिकाएं और मुक्तक

         (1)
चुरा के रख ली है
आवाज़ तेरी अंतस में,
सताने लगती है 
जब भी तनहाई,
मूँद आँखों को 
सुन लेता हूँ। 

         (2)

सीढ़ी तो बनाई थी
तुम तक पहुँचने को,
पर बदनसीबी,
नींद टूट गयी 
तुम तक पहुँचने से पहले ही।

         (3)
कहने की बातें हैं
मेहनत का फल मीठा है,
बनाते हैं महल
मिलती नहीं 
झोंपड़ी भी। 

         (4)
नींद भी अब साथ देते थक गयी,
आज वह करवट बदल कर सो गयी।
ज़िंदगी सब रंग तेरे देख कर,
मौत से मिलने की ख्वाहिस हो गयी। 

         (5)
ज़िंदगी जी न पाये हम कभी खुल के,
अश्क़ आँखों की कोर पर रहे थम के। 
खुशियाँ देने को सब की चाहत में,
जी रहे अपनी खुशियाँ ताक पे रख के। 
      

Tuesday, November 29, 2011

अब मन बृज में लागत नाहीं

सूनी सूनी हैं अब ब्रज गलियाँ,
उपवन में न खिलती कलियाँ.
वृंदा सूख गयी अब वन में,
खड़ी उदास डगर पर सखियाँ.


जब से कृष्ण गये तुम बृज से,
अब मन बृज में लागत नाहीं.


माखन लटक रहा छींके पर,
नहीं कोई अब उसे चुराता.
खड़ीं उदास गाय खूंटे पर,
बंसी स्वर अब नहीं बुलाता.


तरस गयीं दधि की ये मटकी,
कान्हा अब कंकड़ मारत नाहीं.


क्यों भूल गये बचपन की क्रीडा,
क्यों भूल गये बृज की माटी तुम?
एक बार तुम मिल कर जाते,
यूँ होती नहीं गोपियाँ गुमसुम.


अंसुअन से स्नान करत अब,
यमुना तट पर जावत नाहीं.  

Wednesday, November 23, 2011

ज़ंजीरें

झूले की छोटी छोटी कड़ियाँ 
एक दूसरे से जुड़कर
संभाले हुए हैं मेरा बोझ,
और उन कड़ियों की परछाई
पडती है मेरे पैरों पर
और देती है अहसास 
ज़कडे होने का
ज़ंजीरों में,
मेरा सम्पूर्ण अस्तित्व.


नहीं होती हैं बंधन 
सिर्फ़ जंजीरें लोहे की,
हमारी यादों की परछाईं भी
कभी बन जाती हैं 
ज़ंजीरें हमारी ज़िंदगी की
और नहीं मुक्त हो पाते
उस बंधन से
उम्र भर.

Saturday, November 12, 2011

एक बार बचपन मिल जाये

                            जीवन की सरिता में बहते,
                            थक कर खड़ा आज मैं तट पर.
                            बहता समय देख कर सोचूँ,
                            एक बार बचपन मिल जाये.


                            छोटी बातों में खुशियाँ थीं,
                            कंचों ही का था ढ़ेर खज़ाना.
                            काग़ज़ का एक प्लेन बनाकर,
                            दुनियां भर में उड़ कर जाना.


                            कहाँ खो गया है वह बचपन,
                            जीवन की इस दौड़ भाग में.
                            कच्चे अमरूद पेड़ से तोड़ें,
                            पीछे पीछे माली चिल्लाये .


                            भौतिक सुविधायें बहुत जुड़ गयीं,
                            पर मासूम  खुशी अब  ग़ुम है.
                            बारिस आती  अब भी गलियों में.
                            पर काग़ज़ की वो कश्ती ग़ुम है.


                            पल में रोना, फिर हंस जाना,
                            जीवन कितना सहज सरल था.
                            मुझसे ले लो मेरी सब दौलत,
                            माँ बस तेरा चुम्बन मिल जाये.


                            जाना सभी छोड़ कर जग में,
                            क्यों यह समझ नहीं मैं पाया.
                            जैसा जग में आया निर्मल,
                            वैसा ही क्यों मैं रह न पाया.


                            अब इस जीवन  संध्या में,
                            नयी सुबह की आस व्यर्थ है.
                            उंगली अगर पकड़ले बचपन,
                            कुछ पल को बचपन आ जाये.
                            Kailash C Sharma
                         

Friday, November 04, 2011

क्षणिकाएं

१)
छुपा के रखा है 
दिल के एक कोने में 
तुम्हारा प्यार,
शायद ले जा पाऊँ
आख़िरी सफ़र में 
अपने साथ
बचाकर 
सब की नज़रों से.

२)
बहुत तेज सुनायी देती है
दिल की धड़कन
और साँसों की सरसराहट 
अकेले सूने कमरे में.
कौन कहता है
कि अकेलापन
अकेला होता है.

३)
डर नहीं लगता 
मौत के साये से,
डर तो यह है
यह ज़िंदगी 
जियें कैसे.

४)
भुलाने को उनको
रख दीं उनकी यादें
बंद करके लिफ़ाफ़े में
किताबों के बीच,
पर क्या करें
रख नहीं पाते
अपने से दूर
वह किताब
कभी बुक शैल्फ पर.

५)
मौन पसरा हुआ अँधेरे में
अश्रु ठहरे हुए हैं पलकों पर,
कैसे निभाऊँ वादा
दिया तुमको,
कैसे समझाऊँ दर्द को अपने
जो आतुर है
बिखरने को
मेरे गीतों में.

Saturday, October 29, 2011

मेरा आईना झूठ बोलता है

बहुत दिनों बाद देखा
कुछ हमउम्र चेहरों को
और चौंक गया.


वक़्त का तूफ़ान 
छोड़ गया कितने निशान
जो उभर आये चेहरों पर
झुर्रियां बन कर,
और हर पंक्ति
समाये एक इतिहास
अपने आप में. 

भर गया मन अवसाद से
देख कर अपना अक्श
उनकी आँखों में,
लेकिन मेरा आईना
जिससे मैं रोज़ मिलता हूँ 
मुझे कुछ और ही कहता रहा.

आज मुझे लगा 
कि शायद
मेरा आईना
मुझसे झूठ बोलता है.

Monday, October 24, 2011

आओ सब एक दीप जलायें

               प्यार लुटा कर देख लिया अब तक अपनों पर,
               आओ अब कुछ खुशियाँ बाँटें, बाहर भी जग में.

                           कौन है अपना कौन पराया,
                           झूठे रिश्तों ने मन भरमाया.
                           हाथ बढ़ा कर देखो उसको,
                           जिसने प्यार कभी न पाया.

               क्या पाया तुमने केवल अपनों के अश्रु पोंछ कर,
               बांटो कुछ मुस्कानें, इससे जो अनजान हैं जग में.

                           मत गुम हो अपनी खुशियों में,
                           कुछ तो बांटो तुम दुखियन में.
                           कैसे अपना ही पेट मैं भर लूं,
                           जले न चूल्हा जब हर घर में.

               बहुत जी लिये अब तक, अपने ही स्वारथ की खातिर,
               करें समर्पित जीवन उनको,जो अनाथ लाचार हैं जग में.

                           बहुत अँधेरा इन कुटियों में,
                           आओ सब एक दीप जलायें.
                           दीप न महलों के कम होंगे,
                           हर आँगन को अगर सजायें.  

               मंदिर में तो अर्चन करते, दीप जलाते  उम्र कट गयी,
               आओ मिलकर दीप जलायें, घना अँधेरा है जिस पथ में.


                    दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं !

Thursday, October 20, 2011

वक़्त की लहर

वक़्त की हर उत्तंग लहर
लेकर आती है
एक नयी लहर 
आशा की,
लेकिन लौटते हुए 
बहाकर ले जाती है
कुछ और रेत
पैरों के नीचे से,
और महसूस होता है
मेरे वज़ूद का एक और हिस्सा
बह गया है 
उस रेत के साथ.

Friday, October 14, 2011

मीरा तो बन सकती हूँ

अगर नहीं बन पायी राधा, 
मीरा  तो  बन  सकती  हूँ.
मुरली बन न अधर छू सकी, 
मुरली  तो सुन सकती हूँ.

     नहीं ज़रूरी है जीवन में, 
साथ मिले प्रियतम का हर पल.
     मेरे लिये बहुत है इतना, 
हर श्वासों  में हो तेरी  हल चल.

प्रेम न तन का साथ मांगता, 
वह तो  रोम  रोम  बसता  है.
नयन उठाकर जिधर मैं देखूं, 
कण कण में तू ही दिखता है.

श्याममयी हो गया है जीवन, 
ईर्ष्या फिर राधा से क्यों हो?
चरण धूल सिंदूर बन गया,  
इससे बढ़ आशा फिर क्यों हो?

Saturday, October 08, 2011

सूना आकाश

जून की तपती धूप में
गर्मी से बचने की कोशिश में
एक कबूतर का जोड़ा
बैठा था वरांडे की खिड़की पर.

उदास, अकेले
नहीं कर रहे थे गुटरगूं,
शायद बचा नहीं था कुछ 
करने को एक दूसरे से गुफ़्तगू.

कितनी बार उन्हें
तिनका तिनका सहेजकर
घोंसला बनाते,
अंड़ों से निकले बच्चों को,
अपनी भूख को भुलाकर,
दूर से दाना लाते
और अपनी चोंच से खिलाते 
देखा था.

बच्चों के पर आने पर
उनको उड़ना सिखाते,
गिरने पर उठाते
और  फिर उड़ना सिखाते.


कुछ दिन बाद 
बच्चे उड़ने लगते,
माँ बाप भी उनके साथ उड़ते
और गुटरगूं करते,
उनकी स्वप्निल आँखों में 
कितने सपने जगते.

एक दिन देखा 
उड़कर गए बच्चे
वापिस नहीं आये,
और कबूतर का जोड़ा
बैठा था उदास 
आकाश की ओर आँखें टिकाये.

मुझे याद नहीं 
यह इतिहास
कितनी बार दोहराया,
कितनी बार घोंसला बनाया,
बच्चे बड़े हुए
और उड़ गए.

लेकिन आज वे थक गये हैं,
सूनी आँखों के सपने
धूमिल हो गये हैं, 
ऊपर उठी नज़र
लौट आती है
आकाश को देखकर,
कोई नज़र नहीं आता.
जिनके लिए घोंसला बनाया था,
जिनको उड़ना सिखाया था.
सूनी आँखों से 
एक दूसरे को देख रहे हैं
लगता है शायद 
गुटरगूं करना भी भूल गये हैं.

उनकी उदासी देखकर
चारों ओर देखता हूँ 
और सोचता हूँ
कि इंसान की ज़िंदगी भी
इनसे कुछ अलग तो नहीं.

Saturday, October 01, 2011

बेटी


नहीं सहन होता 
जब कोई कहता है,
तुम्हारी बेटी
बेटों से बढकर है.

एक वाक्य
लगा देता है प्रश्न चिन्ह 
मेरे वज़ूद पर,
और जगा देता है
एक हीन भाव 
बेटे से कमतर होने का.

क्यों मैं अवांछित रहती हूँ 
जन्म लेने से पहले ही ?
क्यों मैं बन कर रह जाती हूँ
केवल सेकंड ऑप्शन
माँ बाप को
सांत्वना का ?

क्यों कर दिया जाता है
परायी जन्म लेते ही 
और दिलाया जाता है 
अहसास
हमेशा पराया होने का ?

देखे हैं किसी ने
मेरे आंसू  
जो बहे हैं चुपचाप
उनसे दूर
उनकी याद में ?

नहीं बनना चाहती
वारिस 
किसी विरासत का.
काश, मिलती पहचान 
मुझे मेरे अपने अस्तित्व से
और न तुलना की जाती
मेरी किसी बेटे से.


Saturday, September 24, 2011

चाँद छुप जाओ बादलों में अभी


       चाँद छुप जाओ बादलों में अभी, 
    कहीं ज़माने की तुम्हें नज़र न लगे।

प्यार का अर्थ कहाँ समझा है इस दुनियाँ ने,
पाक़ दामन में भी है दाग लगा कर छोड़ा।
ज़िस्म के रिश्ते को ही बस प्यार समझते ये हैं,
रूह के रिश्तों को कभी प्यार से नहीं जोड़ा। 

     अभी न लाओ अधर पर दिल की बातें,
       कहीं ज़माने को यह न गुनाह लगे। 

जाति, मज़हब के लिए खून बहा सकते हैं,
प्यार के साथ को न हाथ बढ़ाता कोई।
हाथ जुड़ जाते हैं नफरत का मकां गढ़ने को,
दंगों में जली बस्ती न बनाता कोई। 

      चलो आज और नयी डगर ढूंढें,
   मंज़िलों का किसी को पता न लगे।

मूँद लो नयन, न कहीं ख़्वाब अश्रु बन जायें,
चलो वहाँ जहां हर ख़्वाब एक हक़ीक़त हो। 
क़दम न रोकें जहां ज़ंजीर झूठे रिश्तों की,
जहां न प्यार की किस्मत में बस नसीहत हो।

अभी छुपा लो सितारों को अपने दामन में,
सजाना जूड़े में जहां पर कोई नज़र न लगे।