मेरी प्रकाशित पुस्तक 'श्रीमद्भगवद्गीता (भाव पद्यानुवाद)' के कुछ अंश:
अठारहवाँ अध्याय
(मोक्षसन्यास-योग-१८.१-१२)
अर्जुन :
हे महाबाहो! हे केशिनिषूदन!
हे ह्रषीकेश! मुझको बतलाओ.
सन्यास और त्याग का मतलब
अलग अलग मुझको समझाओ. (१८.१)
श्री भगवान :
फल की इच्छा से कर्मत्याग
है विद्वान संन्यास समझते.
सब कर्मों के फल त्याग को
बुद्धिमान जन त्याग हैं कहते. (१८.२)
कर्म को कुछ कहते हैं मनीषी,
दोषयुक्त होने से त्याज्य हैं.
यज्ञ, दान, तप रूप कर्म हैं
दूजों के मत से न त्याज्य हैं. (१८.३)
हे भरत श्रेष्ठ! त्याग विषय में
तुम मेरा निश्चित मत जानो.
हे पुरुष श्रेष्ठ! त्याग को तुम है
तीन प्रकार का कहा है जानो. (१८.४)
यज्ञ दान तप कभी न त्यागें,
करने योग्य कर्म ये होते.
यज्ञ दान तप मनीषियों को
हैं पावन करने वाले होते. (१८.५)
आसक्ति व कर्मफल इच्छा
त्याग कर्म चाहिये करना.
यह ही उत्तम मत है अर्जुन
यह मेरा है निश्चित कहना. (१८.६)
नियत कर्म त्याग है करना
कभी न्याय संगत न होता.
परित्याग मोह के कारण,
त्याग तामसिक ही है होता. (१८.७)
जो शारीरिक कष्टों के भय से,
दुःख रूप समझ कर्म न करता.
उस राजसिक त्याग को करके
उसे नहीं है कोई फल मिलता. (१८.८)
नियत कार्य को जो अर्जुन
है कर्तव्य समझ कर करता.
उसे सात्विक त्याग हैं कहते
तज आसक्ति और फल करता. (१८.९)
द्वेष न दुखदायी कर्मों से,
सुखप्रद में आसक्त न होता.
संशय रहित सत् गुण वाला
वह मेघावी त्यागी है होता. (१८.१०)
नहीं देहधारी को संभव
सब कर्मों का त्याग है करना.
त्यागी करते हुए कर्म भी,
फल की रखते नहीं कामना. (१८.११)
अनिष्ट इष्ट और मिश्रित फल
काम इक्षुक मृत्योपरांत है पाता.
कर्म फलों का त्याग जो करता,
यह फल कभी न सन्यासी पाता. (१८.१२)
.....क्रमशः