Saturday, June 29, 2013

श्रीमद्भगवद्गीता-भाव पद्यानुवाद (५३वीं कड़ी)

                                 मेरी प्रकाशित पुस्तक 'श्रीमद्भगवद्गीता (भाव पद्यानुवाद)' के कुछ अंश: 

                 तेरहवां अध्याय 
(क्षेत्रक्षेत्रज्ञविभाग-योग-१३.१९-२६)

प्रकृति और पुरुष दोनों को
तुम अर्जुन अनादि ही जानो.
लेकिन विकार और गुणों को
तुम उत्पन्न प्रकृति से जानो.  (१३.१९)

कार्य, कारण, कर्तव्य का हेतु
प्रकृति को बतलाया जाता.
सुख दुःख के होने का कारण 
जीवात्मा को कहा है जाता.  (१३.२०)

आत्मा होकर शरीर में स्थित,
प्रकृतिजन्य गुणों को भोगता.
जन्म है अच्छी बुरी योनि में
आसक्ति गुणों के कारण होता.  (१३.२१)

परम पुरुष शरीर में स्थित
साक्षी व अनुमति का दाता.
वही है भर्ता और भोक्ता,
महेश्वर,परमात्मा कहलाता.  (१३.२२)

आत्मा और गुणों को जो जन
प्रकृति सहित जान है लेता.
करते हुए भी सब कर्मों को 
वह फिर से है जन्म न लेता.  (१३.२३)

स्वयं आत्म में ध्यान द्वारा 
आत्मतत्व को कोई देखते.
कुछ ज्ञान व योग के द्वारा,
कुछ कर्मयोग से इसे देखते.  (१३.२४)

अन्य जो न इस रूप जानते,
सुन उपदेश ध्यान हैं करते.
श्रुति परायण वे जन भी हैं 
भव सागर से निश्चय तरते.  (१३.२५)

जग के सभी चराचर प्राणी 
अर्जुन जो उत्पन्न हैं होते.
ऐसा जानो तुम हे अर्जुन!
क्षेत्र क्षेत्रज्ञ संयोग से होते.  (१३.२६)

                ......क्रमशः

...कैलाश शर्मा 

Monday, June 24, 2013

ख़ुदा खैर करे

आये बड़ी उम्मीद से, ख़ुदा खैर करे,
तेरे दर मौत मिली, ख़ुदा खैर करे.

दिल दहल जाता है देख कर मंज़र,       
क्या गुज़री उन पर, ख़ुदा खैर करे.

उभर आती मुसीबत में असली सीरत,
लूटते हैं लाशों को भी, ख़ुदा खैर करे.

मुसीबतज़दा को कभी हाथ बढ़ा करते थे,  
भूखे से भी करें व्यापार, ख़ुदा खैर करे.

इंसानियत हो रही शर्मसार आज इंसां से,
दो सौ रुपये में दें पानी, ख़ुदा खैर करे.

होंगे शर्मिंदा बहुत आज तो तुम भी भगवन,
तेरे बंदे ही तुझे लूट चले, ख़ुदा खैर करे.

.....कैलाश शर्मा  

Thursday, June 20, 2013

एक प्रश्न

अंतराल
जीवन और मृत्यु का
क्यों होता
कभी सुख दायक
कभी पीड़ा से भरा,
क्यों मिलता है कभी दुःख
करने पर सत्कर्म भी
और जो लीन पाप कर्म में
क्यों पाते वे सुख समृद्धि.

मानता हूँ प्रभु,
कर्म पर ही है मेरा अधिकार
और मेरे ही कर्म
होकर लिप्त आत्मा में
करते प्रवेश नव शरीर में
पुनर्जन्म पर,
और पाता है मानव
सुख दुःख
पूर्वजन्म कर्मानुसार.

अनभिज्ञ पूर्वजन्म कर्मों से
जब पाते हैं कष्ट इस जन्म में
देते हैं दोष
भगवान, भाग्य या हालात को.
प्रभु! काश बदल देते ये नियम
मिल जाता उसी जन्म में
शुभ या अशुभ कर्मों का फल,
नहीं ढ़ोना होता बोझ कर्मों का
अगले जन्मों तक,
और प्रारंभ करते नवजीवन
कर्मों की स्वच्छ स्लेट से.

या कर देते संलिप्त आत्मा में  
कर्मों के साथ उनकी स्मृति भी
नव जन्म लेने पर,
जिससे न होती शिकायत
तुम से, हालात से या भाग्य से,
भिज्ञ हो जाते कारणों से
सुख दुःख के जीवन में.

कितना कठिन होता है
भोगना कर्म फल
होकर अनभिज्ञ कारणों से.


.....कैलाश शर्मा 

Sunday, June 16, 2013

पितृ दिवस

छोटी छोटी उंगलियों से 
पकड़ कर हाथ 
चलना सीखा पिता के साथ,
नहीं दे पाते थे छोटे छोटे पैर
पिता के क़दमों का साथ,
कर लेते अपने क़दम धीमे
देने बेटे के कदमों का साथ, 
थक जाने पर उठा लेते गोदी में
नहीं महसूस हुआ कभी बेटे का भार.

आज पिता के पैर
हो गए अशक्त
नहीं दे पाते साथ
बेटे के तेज़ क़दमों का,
बढ़ गया बेटा आगे
छोड़ कर अशक्त हाथ
जो बढे उसकी ओर
सहारे को.

नहीं देखा मुड़ कर
पीछे रह गये पिता को,
नहीं की कम गति
अपने क़दमों की,
कमज़ोर क़दमों का साथ देने.

शायद महसूस हो
उन्हें भी पिता का प्यार
जब हाथों को पकडे
छोटी उंगलियाँ
और साथ चलते छोटे क़दम,
बढ़ जायें आगे
अशक्त क़दमों को
पीछे छोड़ कर.

....कैलाश शर्मा

Thursday, June 13, 2013

कुछ प्रश्न अनुत्तरित रहने दें

सारा जीवन गंवा दिया है
प्रश्नों के उत्तर देने में,
बैठें भूल सभी बंधन को,
कुछ प्रश्न अनुत्तरित रहने दें.

सूरज पाने की चाहत में,
शीतलता शशि की बिसरायी,
टूटे तारों से अब क्या मांगें,
अब आस यहीं पर थमने दें.

रिश्ते बने कभी ज़ंजीरें,
यादें बनीं कभी अंगारे,
बंद करें मुट्ठी में कुछ पल,
कल को कल पर ही रहने दें.

तप्त धूप में चलते चलते
सूख गयी जीवन की सरिता,
क्यों ढूंढें छाया तरुवर की
अपनी छाया ही साथी बनने दें.

धोखा खाया जब अपनों से
शिकवा गैरों से क्यों कर हो,
ढूंढें खुशियाँ अपने अन्दर,
जीवन अब निर्झर बहने दें. 


.....कैलाश शर्मा 

Monday, June 10, 2013

श्रीमद्भगवद्गीता-भाव पद्यानुवाद (५२वीं कड़ी)

                                   मेरी प्रकाशित पुस्तक 'श्रीमद्भगवद्गीता (भाव पद्यानुवाद)' के कुछ अंश: 

       तेरहवां अध्याय 
(क्षेत्रक्षेत्रज्ञविभाग-योग-१३.१२-१८)

जो भी ज्ञेय तुम्हें बतलाता,
जिसे प्राप्त जन मोक्ष है पाता.
परम ब्रह्म अनादि है होता 
सत् या असत् न वह कहलाता.  (१३.१२)

हाथ पैर सब जगह हैं उसके 
मुख सिर नेत्र सब जगह स्थित.
सभी दिशा में कान हैं उसके,
सबको व्याप्त जगत में स्थित.  (१३.१३)

सब इन्द्रिय गुण आलोकित करता
लेकिन रहित इन्द्रियों से वह रहता.
जगपालक पर आसक्ति रहित है 
निर्गुण है पर सब गुण का भोक्ता.  (१३.१४)

अन्दर बाहर सब प्राणी के 
सभी चराचर में वह स्थित.
सूक्ष्मरूप है कठिन जानना,
दूर भी है व पास भी स्थित.  (१३.१५)

है यद्यपि अविभक्त ब्रह्म वह,
लगता सब जन में विभक्त वह.
वही है पालक और वही संहारक,
सर्व प्राणियों का जनक भी है वह.  (१३.१६)

ज्योति ज्योतियों की है वह,
परे अंधकार से कहा है जाता.
ज्ञानगम्य, ज्ञानेय, ज्ञान वह,
ह्रदय प्राणियों में स्थित रहता.  (१३.१७)

तुमको क्षेत्र ज्ञान ज्ञेय का 
मैंने संक्षिप्त अर्थ बताया.
इसे जानता भक्त जो मेरा
उसने मेरा स्वरुप है पाया.  (१३.१८)

              .......क्रमशः

कैलाश शर्मा 

Tuesday, June 04, 2013

सुबह ढूंढेंगे फ़िर सपने, अभी तो शाम ढलती है


इन हथेली की लकीरों से, कहाँ तक़दीर बनती है,
मुसाफ़िर ही सदा चलते, कभी मंज़िल न चलती है.

चलो अब घर चलें, सुनसान कोने राह तकते हैं,
सुबह ढूंढेंगे फ़िर सपने, अभी तो शाम ढलती है.

यकीं है आख़िरी पल तक, वो इक बार आयेंगे,
रुको कुछ देर तो यारो, अभी तो साँस चलती है.

उठे न उंगलियां तुम पर, यही कोशिश रही अपनी,
शिकायत क्या करें उससे, जो गुनहगार कहती है.

रवायत इश्क़ की तेरी, समझ पाया न ये दिल है,
नहीं अब वक़्त भी बाक़ी, घड़ी की सुई चलती है.

कि देने छांव रिश्तों को, बनाया आशियां हमने,
दीवारें हो गयीं ज़र्ज़र, कि छत भी अब टपकती है.

....कैलाश शर्मा