Friday, December 18, 2015

जीवन घट रीत चला

पल पल कर बीत चला,
जीवन घट रीत चला।

बचपन था कब आया,
जाने कब बीत गया।
औरों की चिंता में
यौवन रस सूख गया।
अब जीवन है सूना,
पीछे सब छूट चला।

ऊँगली जो पकड़  चला,
उँगली अब झटक गया।
मिलता अनजाना सा,
जैसे कुछ अटक गया।
जीवन लगता जैसे,
हर पल है लूट चला।

सावन सी अब रातें,
मरुथल सा दिन गुज़रा।
हर पल ऐसे बीता,
जैसे इक युग गुज़रा।
खुशियों का कर वादा,
सपनों ने आज छला।

कण कण है शून्य आज,
हर कोना है उदास।
जीवन में अँधियारा,
आयेगा अब उजास।
सूरज के हाथों फ़िर,
चाँद गया आज छला।

जब तक है चल सकता,
रुकने दे क़दमों को।
कितना भी व्यथित करे,
सह ले हर सदमों को।
अंतिम यात्रा में कब,
कौन साथ मीत चला

...©कैलाश शर्मा

Tuesday, December 08, 2015

सीढ़ियां

चढ़ते ही कुछ ज्यादा सीढ़ी अपनों से
हो जाते विस्मृत संबंध रिश्ते,
निकल जाते अनज़ान हो कर
बचपन के हमउम्र साथियों से
जो खेल रहे होते क्रिकेट
नज़दीकी मैदान में।

खो जाती स्वाभाविक हँसी
बनावटी मुखोटे के अन्दर,
खो जाता अन्दर का छोटा बच्चा
अहम् की भीड़ में।
विस्मृत हो जातीं पिछली सीढियां
जिनके बिना नहीं अस्तित्व
किसी अगली सीढ़ी का।


कितना कुछ खो देते
अपने और अपनों को,
आगे बढ़ने की दौड़ में।।

...©कैलाश शर्मा