Monday, October 27, 2014

चौराहा

चौराहे पर खड़ा हूँ कब से, 
भ्रमित चुनूँ मैं राह कौन सी।
कौन राह मंज़िल को जाए,
अंध गली ले जाय कौन सी।

जितने पार किये चौराहे,
नया दर्द हर राह दे गयी।
बोझ बढ़ गया है कंधों पे,

दृष्टि धूमिल आज हो गयी।

कितने मीत बने रस्ते में,
चले गये सब अपनी राहें।
दूर कारवां चला गया है,
तकता अब बस सूनी राहें।

सूनी राहों पर चलते रहना,
शायद यही नियति है मेरी।
घिरा हुआ था कभी भीड़ से,
भूल गया क्या खुशियाँ मेरी।

क्या उद्देश्य यहाँ आने का,
भूल गया जग की माया में।
अंतस की आवाज़ सुनी न,
कुछ पल रिश्तों की छाया में।

सांध्य अँधेरा लगा है बढ़ने,
नहीं सुबह की आस है बाक़ी।
पैमाना खाली, पर उठ चल,
चली गयी महफ़िल से साक़ी।

....कैलाश शर्मा  

Saturday, October 04, 2014

अब मैंने जीना सीख लिया

कर बंद पिटारा सपनों का,
बहते अश्क़ों को रोक लिया.
अंतस को जितने घाव मिले
स्मित से उनको ढांक लिया.

विस्मृत कर अब सब रिश्तों को,
अब मैंने फ़िर जीना सीख लिया.

करतल पर खिंची लकीरों को
है ख़ुद मैंने आज खुरच डाला.
अब किस्मत की चाबी मुट्ठी में,
खोलूँगा सभी बेड़ियों का ताला.

नहीं चाह फूलों से आवृत राहें हों,
मैंने काँटों पर चलना सीख लिया.

हर घर में पड़ी खरोंचें हैं,
अहसासों की दीवारों पर.
हर सांसें आज घिसटती हैं,
अश्रु हैं रुके किनारों पर.          

अब पीछे मुड़ कर मैं क्यों देखूं,
सूनी राहों पर चलना सीख लिया.

क्यूँ करूँ तिरस्कृत अँधियारा,
मैं अब इंतज़ार में सूरज के.
है रहा साथ जो जीवन भर,
कैसे चल दूँ उसको तज के.

अब एकाकीपन नहीं सताता है,
आईने में अब साथी ढूंढ लिया.


....कैलाश शर्मा