(चित्र गूगल से साभार)
दहशतज़दा
है हर चेहरा मेरे शहर में,
इंसान
नज़र आते न अब मेरे शहर में.
अहसास
मर गए हैं, इंसां हैं मुर्दों जैसे,
इक
बू अज़ब सी आती है मेरे शहर में.
हर
नज़र है कर जाती चीर हरण मेरा,
महफूज़
नहीं गलियां अब मेरे शहर में.
घर
हो गए मीनारें, इंसान हुआ छोटा,
रिश्तों
में न हरारत, अब मेरे शहर में.
लब
भूले मुस्कराना, तन्हाई है आँखों में,
मिलते
हैं अज़नबी से सब मेरे शहर में.
दौलत
है छुपा देती हर ऐब है इंसां का,
इंसानियत
कराह रही अब मेरे शहर में.
.....कैलाश शर्मा