नौवां अध्याय
(राजविद्याराजगुह्य-योग-९.२३-२८)
श्रद्धायुक्त भक्त जो अर्जुन
अन्य देव का अर्चन करते.
विधियुक्त नहीं है ये पूजन
पर वे मेरा ही पूजन करते. (९.२३)
मैं ही सब यज्ञों का भोक्ता
मैं ही हूँ स्वामी भी उस का.
मेरा यथार्थ वे नहीं जानते,
जिससे लगता फेरा जग का. (९.२४)
देवभक्त देव लोक में जाते,
पितृवत हैं पितरों को पाते.
जीवलोक जीवों के पूजक,
मेरे पूजक मुझको हैं पाते. (९.२५)
पत्र पुष्प, फल व जल को
भक्तिपूर्व जो अर्पित करता.
प्रेम पूर्वक उस अर्पण को
हर्षित हो स्वीकार में करता. (९.२६)
तू जो करता कर्म है कुछ भी
जो कुछ खाता है तू अर्जुन.
यज्ञ, दान व तप अपने को
करो मुझे ही तुम सब अर्पण. (९.२७)
शुभ और अशुभ फलों के दाता
मुक्त कर्म बंधन से होगे.
सन्यासयोग से चित्त लगाकर,
होकर मुक्त मुझे पाओगे. (९.२८)
.......क्रमशः
कैलाश शर्मा