Sunday, September 29, 2013

इंतज़ार

जब बैठते थे हम दोनों
दुनियां से दूर
लेकर हाथों में हाथ
इन कठोर चट्टानों पर,
पिघलने लगते थे
कठोर प्रस्तर भी
अहसासों की गर्मी से।
बहती हुई हवा
फैला देती खुश्बू चहुँ ओर
हमारे पावन प्रेम की।
थाम कर कोमल हथेलियाँ
किये थे कितने मौन  वादे
एक दूसरे की नज़रों से।

न जाने कब और क्यूँ
छा गये काले बादल
अविश्वास और शक़ के
हमारे प्रेम पर,
अश्क़ों की अविरल धारा
वक़्त के हाथों में
बन गयी एक सागर
चट्टानों के बीच
और बाँट दिया
दो सुदूर किनारों में।

आज भी खडी
उसी चट्टान पर
ढूँढती हैं सूनी नज़रें
सागर का वह किनारा
जहाँ खो गए तुम
वक़्त की लहरों में।

.....कैलाश शर्मा 

Saturday, September 21, 2013

तलाश मेरे ‘मैं’ की

ढूँढता अपना अस्तित्व मेरा ‘मैं’
जो खो गया कहीं
देने में अस्तित्व अपनों के ‘मैं’ को.

अपनों के ‘मैं’ की भीड़
बढ़ गयी आगे
चढ़ा कर परत अहम की
अपने अस्तित्व पर,
छोड़ कर पीछे उस ‘मैं’ को
जिसने रखी थी आधार शिला
उन के ‘मैं’ की.

सफलता की चोटी से
नहीं दिखाई देते वे ‘मैं’
जो बन कर के ‘हम’
बने थे सीढ़ियां
पहुँचाने को एक ‘मैं’
चोटी पर.
भूल गए अहंकार जनित
अकेले ‘मैं’ का
नहीं होता कोई अस्तित्व
सुनसान चोटी पर.

काश, समझ पाता मैं भी
अस्तित्व अपने ‘मैं’ का
और न खोने देता भीड़ में
अपनों के ‘मैं’ की,
नहीं होता खड़ा आज
विस्मृत अपने ‘मैं’ से
अकेले सुनसान कोने में.


अचानक सुनसान कोने से
किसी ने पकड़ा मेरा हाथ
मुड़ के देखा जो पीछे
मेरा ‘मैं’ खड़ा था मेरे साथ
और समझाया अशक्त अवश्य हूँ
पर जीवित है स्वाभिमान 
अब भी इस ‘मैं’ में.
स्वाभिमान अशक्त हो सकता
कुछ पल को
पर नहीं कुचल पाता इसे
अहंकार किसी ‘मैं’ का,
नहीं होता कभी अकेला ‘मैं’
स्वाभिमान साथ होने पर.


....कैलाश शर्मा 

Friday, September 13, 2013

परीक्षा


कितना कठिन है
प्रतिदिन सामना करना
एक नयी परीक्षा का,
बिना किसी पूर्व सूचना
विषय या पाठ्यक्रम के.

निरंतर देते परीक्षाएं
थक गया तन व मन,
नहीं चाहता  देना
कोई और परीक्षा
पर नहीं कोई उपाय 
बचने का इससे.

स्वीकार  है अपनी नियति
नहीं शिकायत किसी परीक्षा से
और न ही कोई आकांक्षा
किसी अपेक्षित परिणाम की,
केवल है इंतज़ार
उस अंतिम परीक्षा का  
मिलेगी जब मुक्ति
सब परीक्षाओं से.

लेकिन अनिश्चित सदैव की तरह 
दिन उस अंतिम परीक्षा का भी.

.....कैलाश शर्मा 

Wednesday, September 04, 2013

श्रीमद्भगवद्गीता-भाव पद्यानुवाद (५६वीं कड़ी)

                                    मेरी प्रकाशित पुस्तक 'श्रीमद्भगवद्गीता (भाव पद्यानुवाद)' के कुछ अंश: 
               

       चौदहवां  अध्याय 
(गुणत्रयविभाग-योग-१४.९-२०)

सतगुण जन को सुख में अर्जुन
रजगुण कर्मों में संसक्त है करता.
और तमोगुण ज्ञान को ढककर 
जन को प्रमाद आसक्त है करता.  (१४.९)

रज, तम दबा सत्वगुण होता,
सत, तम दबा रजोगुण बढता.
इसी तरह तमोगुण भी अर्जुन 
दमित सत्व, रजस् गुण करता.  (१४.१०)

जब शरीर इन्द्रिय द्वारों में 
ज्ञान प्रकाश उज्वलित होता.
तब ऐसा समझो तुम अर्जुन,
सत् गुण प्राप्त वृद्धि है होता.  (१४.११)

जब राजस गुण बढता भारत,
कर्म प्रवृति, लोभ बढ़ जाते.
भौतिक वस्तु पाने की इच्छा 
व उद्वेग उत्पन्न हो जाते.  (१४.१२)

तामस गुण जब बढता है  
है विवेक भ्रष्ट हो जाता.
उद्यम का अभाव है होता
मोह प्रमाद पैदा हो जाता.  (१४.१३)

जब बाहुल्य सत्व का जन में 
तदा मृत्यु जो प्राप्त है होता.
निर्मल उत्तम ज्ञानीजन के
लोकों को वह प्राप्त है होता.  (१४.१४)

रज गुण प्रधान मृत्यु पाने पर 
लेता जन्म कर्म आसक्त जनों में.
तम गुण बाहुल्य काल में मृत्यु 
लेता जन्म पशु कीट मूढ़ योनि में.  (१४.१५)

श्रेष्ठ कर्म का फल हे अर्जुन! 
निर्मल व सात्विक है होता.
राजस कर्म हैं दुख फल देते,
अज्ञान तमस कर्मफल होता.  (१४.१६)

सतगुण ज्ञान प्रदायी होता 
राजस गुण से लोभ है होता.
अज्ञान मोह प्रमाद हैं अर्जुन 
तामस गुण से ही पैदा होता.  (१४.१७)

ऊर्ध्वलोक सतगुण जन जाते  
रज गुण जन्म पृथ्वी पर लेते.
जो जघन्य तमोगुण में स्थित 
वे जन्म निम्न योनि में लेते.  (१४.१८)

जब मनुष्य इन त्रिगुणों से 
भिन्न अन्य न समझे कर्ता.
त्रिगुण परे उसे भी समझे, 
मेरे स्वरुप को प्राप्त है करता.  (१४.१९)

जो शरीर उत्पत्ति कारक
इन त्रिगुणों से ऊपर उठता.
जन्म मृत्यु जरा दुक्खों से 
होकर मुक्त है अमृत लभता.  (१४.२०)

            ..............क्रमशः

....कैलाश शर्मा