जब बैठते थे हम दोनों
दुनियां से दूर
लेकर हाथों में हाथ
इन कठोर चट्टानों पर,
पिघलने लगते थे
कठोर प्रस्तर भी
अहसासों की गर्मी से।
बहती हुई हवा
फैला देती खुश्बू चहुँ ओर
हमारे पावन प्रेम की।
थाम कर कोमल हथेलियाँ
किये थे कितने मौन वादे
एक दूसरे की नज़रों से।
न जाने कब और क्यूँ
छा गये काले बादल
अविश्वास और शक़ के
हमारे प्रेम पर,
अश्क़ों की अविरल धारा
वक़्त के हाथों में
बन गयी एक सागर
चट्टानों के बीच
और बाँट दिया
दो सुदूर किनारों में।
आज भी खडी
उसी चट्टान पर
ढूँढती हैं सूनी नज़रें
सागर का वह किनारा
जहाँ खो गए तुम
वक़्त की लहरों में।
.....कैलाश शर्मा
दुनियां से दूर
लेकर हाथों में हाथ
इन कठोर चट्टानों पर,
पिघलने लगते थे
कठोर प्रस्तर भी
अहसासों की गर्मी से।
बहती हुई हवा
फैला देती खुश्बू चहुँ ओर
हमारे पावन प्रेम की।
थाम कर कोमल हथेलियाँ
किये थे कितने मौन वादे
एक दूसरे की नज़रों से।
न जाने कब और क्यूँ
छा गये काले बादल
अविश्वास और शक़ के
हमारे प्रेम पर,
अश्क़ों की अविरल धारा
वक़्त के हाथों में
बन गयी एक सागर
चट्टानों के बीच
और बाँट दिया
दो सुदूर किनारों में।
आज भी खडी
उसी चट्टान पर
ढूँढती हैं सूनी नज़रें
सागर का वह किनारा
जहाँ खो गए तुम
वक़्त की लहरों में।
.....कैलाश शर्मा