Monday, February 27, 2017

कैसी यह मनहूस डगर है

भूल गयी गौरैया आँगन,
मूक हुए हैं कोयल के स्वर,
ठूठ हुआ आँगन का बरगद,
नहीं बनाता अब कोई घर।

लगती नहीं न अब चौपालें,
शोर नहीं बच्चों का होता।
झूलों को अब डाल तरसतीं,
सावन भी अब सूना होता।

पगडंडी सुनसान पडी है,
नहीं शहर से कोई आता।
कैसी यह मनहूस डगर है,
नहीं लौटता जो भी जाता।
  

कंकरीट के इस जंगल में,
अपनेपन की छाँव न पायी।
आँखों से कुछ अश्रु ढल गये,
आयी याद थी जब अमराई।


पंख कटे पक्षी के जैसे,
सूने नयन गगन को तकते।
ऐसे फसे जाल में सब हैं,
मुक्ति की है आस न करते।

...©कैलाश शर्मा