चारों ओर
पसरा है सन्नाटा
मौन है श्वासों का शोर भी,
उघाड़ कर
चाहता फेंक देना
चीख कर
चादर मौन की,
लेकिन
अंतस का सूनापन
खींच कर
फिर से ओढ़ लेता
चादर
सन्नाटे की।
पास आने
से झिझकता
सागर की
लहरों का शोर,
मौन होकर
गुज़र जाता दरवाज़े से
दबे
क़दमों से भीड़ का कोलाहल,
अनकहे
शब्दों का क्रंदन
आकुल है
अभिव्यक्त होने को,
क्यूँ आज
तक हैं चुभतीं
टूटे
ख़्वाब की किरचें अंतस में।
थप थपा
कर देखो कभी मौन का दरवाज़ा भी
दहल
जाएगा अंतस सुन कर शोर सन्नाटे का।
...©कैलाश शर्मा