Thursday, March 20, 2014

श्रीमद्भगवद्गीता-भाव पद्यानुवाद (१७वां अध्याय)

                                  मेरी प्रकाशित पुस्तक 'श्रीमद्भगवद्गीता (भाव पद्यानुवाद)' के कुछ अंश: 
         सत्रहवाँ अध्याय 
(श्रद्धात्रयविभाग-योग-१७.१४-२८

देव ब्राह्मण ज्ञानी जन का
और गुरु का पूजन करते.
शुचिता अहिंसा ब्रह्मचर्य 
तप संपन्न शरीर से कहते.  (१७.१४)

बुरी न लगे ऐसी वाणी हो,
प्रिय हितकारी और सत्य है.
स्वाध्याय विद्या में प्रवृति
वह होता वाणी का तप है.  (१७.१५)

मौन सौम्यता भाव शुचिता
प्रसन्नता व आत्मसंयम है.
ऐसे भाव है जो जन रखता 
कहते उसे मानसिक तप है.  (१७.१६)

फल कामना रहित व श्रद्धा से   
एकाग्र चित्त होकर जो करते.
पूर्वोक्त त्रिविध श्रद्धा से करता 
उस तप को सात्विक हैं कहते.  (१७.१७)

सत्कार मान श्रद्धा के हेतु 
दम्भ पूर्व जो तप हैं करते.
जो अनित्य क्षणिक है होता
उसे राजसिक तप हैं कहते.  (१७.१८)

मूढ़ दुराग्रह के कारण से 
निज शरीर को पीड़ा देते.
दूजों के विनाश के हेतु 
वे तामसिक तप हैं करते.  (१७.१९)

योग्य पात्र को दान हैं देता,
देश काल ध्यान में रखके.
वह ही दान सात्विक होता,
देते जिसे कर्तव्य समझके.  (१७.२०)

प्रत्युपकार या फल इच्छा से
जो भी दान दिया है जाता.
दान मानसिक कष्ट से देना
वह राजसिक है माना जाता.  (१७.२१)

गलत जगह और समय पर 
जो अपात्र को दिया है जाता.
तिरस्कारपूर्व सत्कारहीन जो 
दान तामसिक है कहलाता.  (१७.२२)

ॐ तत् सत् तीनों प्रकार से
ब्रह्म प्रतीक हैं जाने जाते.
ब्राह्मण वेद यज्ञ सृष्टि में 
उनसे उत्पन्न हैं जाने जाते.  (१७.२३)

शास्त्र विधि तप दान क्रियायें
अतः वेद वेत्ता जब करते.
आरम्भ सदा करने से पहले 
  शब्द उच्चारण करते.  (१७.२४)

बिना कामना फल इच्छा की 
दान यज्ञ  और तप जो करते.
मोक्ष प्राप्ति के इक्षुक हैं जो 
पहले तत् का उच्चारण करते.  (१७.२५)

सद् भाव व श्रेष्ठ भाव में
सत् शब्द प्रयोग हैं करते.
उत्तम कर्मों में भी अर्जुन 
सत् शब्द प्रयोग हैं करते.  (१७.२६)

यज्ञ दान और तप में भी 
स्थिर रहना सत् कहलाता.
उनसे संबंधित जो कर्म है
वह भी अर्जुन सत् कहलाता.  (१७.२७)

दान यज्ञ तप कर्म है अर्जुन 
श्रद्धा बिना असत् कहलाता.
उसका लाभ न जग में होता 
न ही है वह परलोक में पाता.  (१७.२८)

**सत्रहवाँ अध्याय समाप्त**

                  ....क्रमशः

...कैलाश शर्मा 

20 comments:

  1. धीरे धीरे सत्रह अध्याय भी खत्म हो गए ... परन्तु आपका लिखा कायम रहेगा सदियों तक ..

    ReplyDelete
  2. बहुत ही सुंदर पाद्यानुवाद , आदरणीय सर धन्यवाद
    ॥ जय श्री हरि: ॥
    नवीन प्रकाशन -: बुद्धिवर्धक कहानियाँ - ( ~ अतिथि-यज्ञ ~ ) - { Inspiring stories part - 2 }

    ReplyDelete
  3. बहुत ही सुंदर

    ReplyDelete
  4. अत्यंत सुन्दर उत्कृष्ट
    बेहद सरल और सुन्दर शब्दों में काव्यमय अनुवाद आप कर रहे हैं।
    बहुत बहुत शुभकामनाएँ

    ReplyDelete
  5. इतना सुंदर भावानुवाद आप ही के बस का है साधुवाद ।

    ReplyDelete
  6. गीता का बहता हुआ ज्ञान।

    ReplyDelete
  7. कर्म पर है अधिकार तुम्हारा कदापि नहीं है फल पर वश ।
    अतः पार्थ तू कर्म किए जा अकर्मण्य तू कभी न बन ॥

    ReplyDelete
  8. मौन सौम्यता भाव शुचिता
    प्रसन्नता व आत्मसंयम है.
    ऐसे भाव है जो जन रखता
    कहते उसे मानसिक तप है.

    मानसिक तप से बढकर कोई तप नहीं..

    ReplyDelete
  9. बहुत सुंदर भावानुवाद.

    ReplyDelete
  10. बहुत सुन्दर भावार्थ भावानुवाद मूल पाठ सा असुंदर !

    ReplyDelete
  11. बहुत सुंदर भाव और सुंदर अनुवाद .....

    ReplyDelete
  12. सुंदर और सरल अनुवाद ... इसके लिए आपका शुक्रिया

    ReplyDelete
  13. बहुत सुन्दर अनुवाद

    ReplyDelete
  14. GREAT LINES TRANSLATED BEAUTIFULY THANKS

    ReplyDelete
  15. जब जब होता है धर्म पराजित और अधर्म होता है प्रबल ।
    स्थापित करने धर्म-ध्वज को होता हूँ अवतरित धरा पर ॥

    ReplyDelete
  16. बहुत सुन्दर भावार्थ भावानुवाद .....साधुवाद ...

    ReplyDelete
  17. गीता ज्ञान सार का भाव विरेचन करती बढ़िया पोस्ट

    ReplyDelete
  18. आज गीता की जितनी आवश्यकता है उतनी शायद किसी भी ग्रन्थ की नहीं ! गीता वेदों और संसार के सभी धर्म पथों का वोध कराती है | मैंने भी घनाक्षारियों में गीता के महत्त्व को प्रस्तुत करने का यत्न किया है \ समय आने पर अन्तर्जाल में डालूँगा !

    ReplyDelete