कहाँ गयी
रिश्तों की गरिमा
और पवित्रता?
कैसे रहूँगी सुरक्षित
घर से बाहर,
जब उठने लगती हैं
घर में ही
कलुषित नज़रें उनकी,
जिनकी गोद में
करती हूँ आशा
प्रेम और सुरक्षा की.
सोचती हूँ
अपनों से ही
इज्ज़त लुट जाने से
बेहतर होती
उसकी हत्या
ज़न्म लेने से पहले ही.
बेटी द्वारा
बलात्कार करने वाले
पिता की हत्या,
बनकर रह जाती है
सिर्फ़ हैड लाइन
एक समाचार की,
जिस पर एक नज़र डाल कर,
चाय की चुस्की के साथ,
बढ़ जाते हैं
अगले समाचार पर.
शायद शिकार हो गयी है
सामाजिक संवेदनशीलता भी
इन वहशियों के
बलात्कार की.
शर्म आती है
अब तो अपने आपको
इंसान कहने में.
कासे कहूँ
अपनी व्यथा,
तुम्ही बताओ
अब जाऊँ तो
कहाँ जाऊँ?
अब नहीं आएगा
कोई कृष्ण
द्रोपदी को बचाने
निर्वस्त्र होने से,
उठाना होगा गांडीव
मुझे खुद ही
अपनों के विरुद्ध
अपनी रक्षा में.
सुन्दर प्रस्तुति जो अंतर्मन को कुरेदती है.
ReplyDeleteआज 'लंकापुरी' का ही सम्राज्य है चहुँ और
अफ़सोस! जो भारत जगत गुरू होने की सामर्थ्य रखता
है,अज्ञान के कारण उसका ये हाल.
'कृष्ण' और 'अर्जुन' तो अपने अंदर ही है कैलाश जी.
संवेदनाओ से ओतप्रोत कविता, आज की घबरा देने वाली त्रासदी ,
ReplyDeleteकैसे किसका दामन पकडे,
किसका अब विस्वास करे
किन क़दमों की आस टटोलें
किस जग में प्रवास करे .
अभिवादन कैलाश जी
आज की हकीकत...अच्छी रचना...
ReplyDeleteकासे कहूँ
ReplyDeleteअपनी व्यथा,
तुम्ही बताओ
अब जाऊँ तो
कहाँ जाऊँ?
kahin koi raah nahi ummeed nahi , sach pucho to prashn ka jawaab nahi
बहुत ही शसक्त अभिव्यक्ति ..चहुँ और अविश्वाश और मानवीय संवेदनाओ का निरंतर होता ह्रास ... संवेदनशील रचना ..कोटि कोटि शुभ कामनाएं....
ReplyDeleteकलयुग में सब एक साथ ही कहदे होते हैं ..गांडीव तो अकेले ही उठाना होगा वो भी पांडवों और कौरवों दोनों पर..
ReplyDeleteसमाज में फैलती इस चारित्रिक पतन का सुन्दर अभिव्यक्ति
sunder rachna. aabhar.
ReplyDeleteउठाना होगा गांडीव
ReplyDeleteमुझे खुद ही
अपनों के विरुद्ध
अपनी रक्षा में
बस यही है हल.
सशक्त अभिव्यक्ति.
bahut hi marmik abhivyakti .samajik yatharth se roobroo karati rachna .aabhar .
ReplyDeleteबहुत मर्मस्पर्शी रचना ।
ReplyDeleteवाकई त्रासद... जब घर में ही सुरक्षित नहीं तो कहाँ सुरक्षा की आस करें और किससे हम फरियाद करें ।
ReplyDeleteउठाना होगा गांडीव
ReplyDeleteमुझे खुद ही
अपनों के विरुद्ध
अपनी रक्षा मे
बिल्कुल अब यही करना होगा…………सशक्त अभिव्यक्ति।
अब नहीं आएगा
ReplyDeleteकोई कृष्ण
द्रोपदी को बचाने
निर्वस्त्र होने से,
उठाना होगा गांडीव
मुझे खुद ही
अपनों के विरुद्ध
अपनी रक्षा में.
ye to katu satya hai ,bahut marmik rachna
अब नहीं आएगा
ReplyDeleteकोई कृष्ण
द्रोपदी को बचाने
निर्वस्त्र होने से,
उठाना होगा गांडीव
मुझे खुद ही
अपनों के विरुद्ध
अपनी रक्षा में.
बहुत खूब! बहुत सुन्दर भावपूर्ण रचना..
मन में एक तरंग है
ज्वाला उठ रही प्रचंड है
तुम कभी न हार मानना
चाहे दुश्मन हो अपार
अब हो जाओ तैयार साथियो हो जाओ तैयार
सशक्त और विचारोत्तेजक कविता।
ReplyDeleteआज के सच को लिख दिया है ...सोचने पर विवश करती रचना
ReplyDeleteवे प्रश्न अभी भी ललकारते हैं हमें।
ReplyDeleteशीलहरण की घटनाओं के उपरान्त, घटना के प्रत्यक्षदर्शी, समाचार को सुनने, पढ़ने और कहने वाले ... इसलिये इस चुप्पी साध लेते हैं...
ReplyDeleteक्योंकि ऎसी घटनाएं उसे सामान्य-सी प्रतीत होने लगी हैं...
जिस कर्म को वह अवचेतन में अंजाम देता हो.. बाहरी रूप से बेशक विरोध दर्ज करता हो..
जिस कर्म को वह फिल्मों में देखना पसंद करता हो... ऊपरी तौर पर बेशक वह फिल्म को एडल्ट कहकर बक्श देता हो..
जिस कर्म को वह सरेआम देखता हो... केवल जनता की ओर मुँह करके यह कहता हो कि सारे नपुंसक हैं कोई ऐसे में आवाज क्यों नहीं उठाता, आदि-आदि.
जिस कर्म को वह भी किसी न किसी रूप में कर रहा हो.. तो कैसे वह प्रबल रूप से विरोध कर पायेगा...
...... जब जिस बलात कर्म के प्रति हमारी संवेदनाएँ सूख गयी हों तब कैसे उसका विरोध करें... कैसे वो माहौल बनाएँ कि जरा-सी छेड़खानी पर आसपास की जनता उसे नैतिकता का पाठ पढ़ाने को उत्सुक दिखे..
जिस कृष्ण के सन्दर्भ में गोपी-चीर हरण की बातें प्रचलित हैं वो कृष्ण तो कम-स-कम द्रोपदी शील सुरक्षा नहीं कर सकता... लगता है गोपी चीरहरण की बातें मिथ्या हैं.
कुछ सुधार :
ReplyDelete... इसलिये इस पर चुप्पी साध लेते हैं...
पुरुष के बढ़ते वहशीपन पर अच्छा कटाक्ष है।
ReplyDeletebahut hee khoobsurat rachna hai kailash bhai!
ReplyDeleteबेहद दुखद स्थिति है... बहुत ही भावपूर्ण रचना...
ReplyDeleteबेहद त्रासद स्थिति .......
ReplyDeleteव्यक्ति के लिये और समाज के लिये भी ......
उठाना होगा गांडीव
ReplyDeleteमुझे खुद ही
अपनों के विरुद्ध
अपनी रक्षा में
बस यही है हल.
बहुत ही भावपूर्ण रचना
सच को बयान करती ... बहुत ही भावपूर्ण रचना है ... भेद जाती है अंतस को ...
ReplyDeleteआदरणीय श्री कैलाश जी
ReplyDeleteअच्छी रचना और हकीकत भी
विद्रूप-सत्य से दर्द उभारती रचना..आह......
ReplyDeleteवर्तमान सामाजिक हालातों को आईना दिखाती आपकी यह रचना सचमुच सोचने पर मजबूर करती है ...आपका आभार
ReplyDeleteBitter but harsh reality of 21st century. Hardened feelings and incurious attitude of so called modern human beings is very pathetic. I agree with you that only solution for this in today's date is Self-Defense.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना.
ReplyDeleteUf!
ReplyDeleteबहुत ही भावपूर्ण रचना है सोचने पर मजबूर करती है ...आपका आभार
ReplyDeleteसोचने पर मजबूर करती बहुत मर्मस्पर्शी रचना|
ReplyDeleteघर के अपनों के हाथों लुटने से बेहतर है जन्म के पूर्व ही मर जाना। सशक्त अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteमर्मस्पर्शी रचना
ReplyDeleteविवेक जैन vivj2000.blogspot.com
सामाजिक विषमताओं पर केवल कुठाराघात से हल नहीं निकलते.आपने समाधान के साथ रचना लिख कर ,कविता को नई दिशा प्रदान की है. उत्कृष्ट रचना का मुक्त कंठ से स्वागत है.
ReplyDeleteवाह.....कितने मार्मिक रूप से आपने इस समस्या को उठाया है और उसका हल भी बताया.......शानदार.....माफ़ी चाहूँगा इतनी देर से आपके ब्लॉग पर पहुँच पाया.....बहुत अच्छा लगा यहाँ आकर|
ReplyDeleteकविता हमें स्वयं कुछ करने के लिए प्रेरित कर रही है, बनिस्बत उस के कि हम बैठ कर किसी चमत्कार की आशा करें|
ReplyDeleteउक्त कविता आज के राजनीतिक परिदृश्य पर भी बहुत सही बैठती है|
उत्तम कविता के लिए बधाई स्वीकार करें बन्धुवर|
हकीकत को आपने बहुत सुन्दरता से शब्दों में पिरोया है! शानदार और लाजवाब रचना ! प्रशंग्सनीय प्रस्तुती!
ReplyDeleteघर में रहते रक्षकों के वेश में नाग है, इनको कुचलना ही पड़ेगा ...शुभकामनायें आपको !
ReplyDeleteमर्मस्पर्शी रचना|
ReplyDeleteउत्तम कविता के लिए बधाई स्वीकार करें|
samaj ka kaud ban rahi vyatha ko shado me chitrit kar diya....kathor kintu saty...
ReplyDeletebahut sundar abhibykti ..hardik badhai...
ReplyDeletesadar
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