शाम से ही फ़िर उदासी छा गयी.
मूँद करके नयन, विस्मृत कर दिये थे मिलन क्षण,
नयन रीते हो गये, सब बह गये थे अश्रु कण.
नयन रीते हो गये, सब बह गये थे अश्रु कण.
उंगलियां तुम पर उठें न, कर दिया खुद को अजाना,
दर्द खुद ही सहलिये, करने को चुकता प्रेम ऋण.
दर्द खुद ही सहलिये, करने को चुकता प्रेम ऋण.
हो गया अभ्यस्त तपती धूप का,
आज फ़िर काली घटा क्यों छा गयी.
एक सलवट से भी बिस्तर था अजाना ही रहा,
स्वप्न उठते थे नयन में, तन कुंवारा ही रहा.
तोड़ने को मौन सागर की लहर सिर पटकती थीं,
कर्णवेधी शोर से पर मन अविचलित ही रहा.
कर दिया था दफ़्न खुद को कब्र में,
क्यों सताने तेरी आहट आ गयी.
झूठ था शायद, तुम्हारा नाम विस्मृत कर दिया,
मेज़ से फोटो हटाने से क्या रिश्ता मिट गया?
बन न पाया था मैं पत्थर, लाख कोशिश मैंने की,
आज बस क्षण एक में, यह भरम भी मिट गया.
अब सतायेगा अकेलापन बहुत,
याद बन चिंगारी ज़लाने आगयी.
याद बन चिंगारी ज़लाने आगयी.
बहुत खूब
ReplyDeleteआदरणीय कैलाश जी
ReplyDeleteनमस्कार
हर शब्द बहुत कुछ कहता हुआ, बेहतरीन अभिव्यक्ति के लिये बधाई के साथ शुभकामनायें ।
झूठ था शायद, तुम्हारा नाम विस्मृत कर दिया,
ReplyDeleteमेज़ से फोटो हटाने से क्या रिश्ता मिट गया?
एक प्रश्न जिसके उत्तर की उत्तर की तलाश एक मोड़ पर सब को होती है.
बहुत बढ़िया रचना है सर!
सादर
अद्भुत विरह भाव सजाएं है कैलाश जी!!
ReplyDeleteएक सलवट से भी बिस्तर था अजाना ही रहा,
स्वप्न उठते थे नयन में, तन कुंवारा ही रहा.
तोड़ने को मौन सागर की लहर सिर पटकती थीं,
कर्णवेधी शोर से पर मन अविचलित ही रहा.
मर्मभेदी विरह वेदना??
झूठ था शायद, तुम्हारा नाम विस्मृत कर दिया,
ReplyDeleteमेज़ से फोटो हटाने से क्या रिश्ता मिट गया?
बन न पाया था मैं पत्थर, लाख कोशिश मैंने की,
आज बस क्षण एक में, यह भरम भी मिट गया.
अब सतायेगा अकेलापन बहुत,
याद बन चिंगारी ज़लाने आगयी.
उफ़ …………कितना दर्द भर दिया है…………सुन्दर प्रस्तुति।
I am out of words.... Commenting on this piece is beyond me.
ReplyDeleteकर दिया था दफ़्न खुद को कब्र में,
ReplyDeleteक्यों सताने तेरी आहट आ गयी.
बहुत खूब विरह की व्यथा. अति सुंदर.
दिल को छू लेने वाली रचना
ReplyDeleteएक सलवट से भी बिस्तर था अजाना ही रहा,
ReplyDeleteस्वप्न उठते थे नयन में, तन कुंवारा ही रहा.
तोड़ने को मौन सागर की लहर सिर पटकती थीं,
कर्णवेधी शोर से पर मन अविचलित ही रहा. बहुत सुन्दर…….. मन के दर्द को सुन्दर रुप से उभारा
झूठ था शायद, तुम्हारा नाम विस्मृत कर दिया,
ReplyDeleteमेज़ से फोटो हटाने से क्या रिश्ता मिट गया?
बन न पाया था मैं पत्थर, लाख कोशिश मैंने की,
आज बस क्षण एक में, यह भरम भी मिट गया
कही दूर तक दिल को कुरेद गयी कैलाश जी , गुनगुनाती हुयी कविता, दर्द के भाव समेटे बधाई
marmik rachanaan anterman ko prabhavit karti huyi - कर दिया था दफ़्न खुद को कब्र में,
ReplyDeleteक्यों सताने तेरी आहट आ गयी.
sadhuvad ji .
स्मृति लहरें रह रह उठतीं।
ReplyDeleteमेज़ से फोटो हटाने से क्या रिश्ता मिट गया?
ReplyDeleteयादों के समुन्द्र में लहरों को रोकने की कोशिश , बहुत सुंदर , बधाई
मूल स्वभाव बदलता कभी नहीं... आप चाहे कितनी ही कोशिशें कर लें.
ReplyDeleteविरह वहीं अच्छे से पलता है जहाँ कभी प्रेम ने किलकारियाँ ली होती हैं.
किसी ने कहा है कि "विरह अग्नि में जल गये मन के मैल विकार."
आपकी रचना में प्रेम को गहराता देखता हूँ.
ucch koti ke prem aur virah dono ko darshati rachna
ReplyDeleteहो गया अभ्यस्त तपती धूप का,
ReplyDeleteआज फ़िर काली घटा क्यों छा गयी.
अब सतायेगा अकेलापन बहुत,
याद बन चिंगारी ज़लाने आगयी.
lajawab abhivykti......
ye yade kanha sath chodtee hai......?
मूँद करके नयन, विस्मृत कर दिये थे मिलन क्षण,
ReplyDeleteनयन रीते हो गये, सब बह गये थे अश्रु कण.
उंगलियां तुम पर उठें न, कर दिया खुद को अजाना,
दर्द खुद ही सहलिये, करने को चुकता प्रेम ऋण.
विरह में भी कितना प्रेमभाव महसूस हो रहा है ..सुन्दर अभिव्यक्ति
झूठ था शायद, तुम्हारा नाम विस्मृत कर दिया,
ReplyDeleteमेज़ से फोटो हटाने से क्या रिश्ता मिट गया?
.....
कल ही मेरी श्रीमती जी ने एक फोटो तोड़ दी..
आज आपने दिल की बात शब्दों में बोल दी...
आभार धन्यवाद
झूठ था शायद, तुम्हारा नाम विस्मृत कर दिया,
ReplyDeleteमेज़ से फोटो हटाने से क्या रिश्ता मिट गया?
बन न पाया था मैं पत्थर, लाख कोशिश मैंने की,
आज बस क्षण एक में, यह भरम भी मिट गया.
प्रभावित करते भाव..... कुछ यादें सदा साथ रहती हैं
मेज़ से फोटो हटाने से क्या रिश्ता मिट गया?
ReplyDeleteभावनात्मक रचना ...
क्या कहूँ...शब्द दर्द बन गये हैं या दर्द ही शब्द बन गये हैं ..... सादर !
ReplyDeleteबहुत उत्तम रचना, बधाई।
ReplyDeleteसुन्दर.....विरह का दर्द लफ़्ज़ों में उतर आया है......लाजवाब|
ReplyDeleteसही कहा आपने। तस्वीर हटाने मात्र से ही रिश्ते खत्म नही होते। सुदंर रचना।
ReplyDeleteबड़ा अच्छा लगा आपके ब्लॉग पर आकर, आप जैसे प्रतिभाशाली ब्लॉग लेखको का "भारतीय ब्लॉग लेखक मंच" परिवार में स्वागत है. इस साझा मंच में योगदान के लिए हमें मेल भेंजे.. editor.bhadohinews@gmail.com
ReplyDeleteमूँद करके नयन, विस्मृत कर दिये थे मिलन क्षण,
ReplyDeleteनयन रीते हो गये, सब बह गये थे अश्रु कण।
उंगलियां तुम पर उठें न, कर दिया खुद को अजाना,
दर्द खुद ही सह लिये, करने को चुकता प्रेम ऋण।
प्रेम, स्मृति और पीड़ा का गहन रिश्ता है। इसी मूल भाव को आपने इस गीत में कुशलता के साथ अभिव्यक्त किया है।
इस उत्तम रचना के लिए बधाई, शर्मा जी।
'क्रन्तिस्वर'पर व्यक्त आपकी सद्भावनाओं के लिए हार्दिक आभार एवं धन्यवाद.
ReplyDeleteकवितायें अच्छी हैं.
अब सतायेगा अकेलापन बहुत,
ReplyDeleteयाद बन चिंगारी ज़लाने आगयी.
वाकई उत्तम भावाभिव्यक्ति...
आज तेरी याद फिर क्यों आ गयी,
ReplyDeleteशाम से ही फ़िर उदासी छा गयी.
यादों पर आपके गीत का प्यारा सा मुखड़ा पढ़कर किसी का एक शेर याद आ गया.शेर है:-
याद में तेरी जहाँ को भूलता जाता हूँ मैं.
भूलने वाले कभी तुझको भी याद आता हूँ मैं.
बहुत खूब विरह की व्यथा|बहुत सुन्दर रचना| धन्यवाद|
ReplyDeleteबहुत सुंदर विरह भरी रचना,
ReplyDeleteधन्यवाद|
- विवेक जैन vivj2000.blogspot.com
मन के व्यथा को आपने अद्भुत तरीके से शब्दों में प्रकाश किया है ... बहुत सुन्दर !
ReplyDeleteएक सलवट से भी बिस्तर था अजाना ही रहा,
ReplyDeleteस्वप्न उठते थे नयन में, तन कुंवारा ही रहा.
तोड़ने को मौन सागर की लहर सिर पटकती थीं,
कर्णवेधी शोर से पर मन अविचलित ही रहा...
बहुत खूब ... अकेलेपन की यंत्रणा को झेलती लाजवाब रचना ...
कर दिया था दफ़्न खुद को कब्र में,
ReplyDeleteक्यों सताने तेरी आहट आ गयी.
वाह शर्मा जी वाह| सुंदर काव्यात्मक प्रस्तुति| शब्द संयोजन बहुत ही जबरदस्त है इस रचना में| बधाई|
वाह ...बहुत ही गहरी बात ...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर गीत...
ReplyDeleteविरह-वियोग चरम पर ....
झूठ था शायद, तुम्हारा नाम विस्मृत कर दिया,
ReplyDeleteमेज़ से फोटो हटाने से क्या रिश्ता मिट गया?
बन न पाया था मैं पत्थर, लाख कोशिश मैंने की,
आज बस क्षण एक में, यह भरम भी मिट गया....
Very touching lines, making me emotional.
.
जितने सुन्दर शब्द उतने ही सुन्दर भाव...अप्रतिम रचना...बधाई स्वीकारें
ReplyDeleteनीरज
विरह-व्यथा ...बहुत सुंदर रचना ..प्रभावी ...बधाई
ReplyDeleteउंगलियां तुम पर उठें न यही है प्रेम की परिभाषा। शोर से मन अविचलित रहना बहुत बडी बात । मोम पत्थर कैसे बन सकता है । उत्तम रचना
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना
ReplyDeleteधन्यवाद.
अब सतायेगा अकेलापन बहुत,
ReplyDeleteयाद बन चिंगारी ज़लाने आगयी.---- वाह शर्माजी क्या बात है....सुन्दर विरह गीत...
कर दिया था दफ़्न खुद को कब्र में,
ReplyDeleteक्यों सताने तेरी आहट आ गयी.
बेहद शानदार लाजवाब .....
आदरणीय कैलाश जी
ReplyDeleteसादर अभिवादन !
एक सलवट से भी बिस्तर था अजाना ही रहा,
स्वप्न उठते थे नयन में, तन कुंवारा ही रहा.
तोड़ने को मौन सागर की लहर सिर पटकती थीं,
कर्णवेधी शोर से पर मन अविचलित ही रहा.
बहुत गहरे भाव लिए' अंतर को छू लेने वाला गीत ...
सुन्दर शब्द ! सुन्दर भाव !
शानदार रचना.
आपकी लेखनी को प्रणाम !
हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं !
- राजेन्द्र स्वर्णकार
"हो गया अभ्यस्त तपती धूप का,
ReplyDeleteआज फ़िर काली घटा क्यों छा गयी."
क्या बात है !
अब सतायेगा अकेलापन बहुत,
ReplyDeleteयाद बन चिंगारी ज़लाने आगयी.
बहुत खूब कहा कैलाश जी ।