यादों में जब भी हैं आती बेटियां,
आँखों को नम हैं कर जाती बेटियां।
आती हैं स्वप्न में बन के ज़िंदगी,
दिन होते ही हैं गुम जाती बेटियां।
कहते हैं क्यूँ अमानत हैं और की,
दिल से सुदूर हैं कब जाती बेटियां।
सोचा न था कि होंगे इतने फासले,
हो जाएंगी कब अनजानी बेटियां।
होंगी कुछ तो मज़बूरियां भी उसकी,
माँ बाप से दूर कब जाती बेटियां।
माँ बाप से दूर हों चाहे बेटियां,
लेकिन जगह दुआ में पाती बेटियां।
...©कैलाश शर्मा
जी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना शुक्रवार १९ अप्रैल २०१९ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
आभार...
Deleteआभार...
ReplyDeleteब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 18/04/2019 की बुलेटिन, " विश्व धरोहर दिवस 2019 - ब्लॉग बुलेटिन “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteआभार...
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना ।
ReplyDeleteदूर कब जाती बेटियां ....
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना
बहुत हृदय स्पर्शी भाव रचना।
ReplyDeleteअप्रतिम ।
हृदयस्पर्शी रचना।
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर मन को छूती हुयी पंक्तियाँ ... बेटियाँ परिवार को परिवार बना कर रखती हैं ... मजबूरी होती है तब भी दिल से रहती हैं अपनी बेटियाँ ...
ReplyDeleteहृदयस्पर्शी रचना ....सादर नमस्कार आप को
ReplyDeleteकहते हैं क्यूँ अमानत हैं और की,
ReplyDeleteदिल से सुदूर हैं कब जाती बेटियां।
बहुत लाजवाब... हृदयस्पर्शी रचना..
वाह!!!
होंगी कुछ तो मज़बूरियां भी उसकी,
ReplyDeleteमाँ बाप से दूर कब जाती बेटियां।
सच है। मायके की देहरी छूटती नहीं।
सही कहा
ReplyDeleteबेटियों की भांति ही मन को सहलाती रचना!!!
ReplyDeleteहृदयस्पर्शी रचना
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