जो भी मिला जीवन में
चढ़ाये था एक मुखौटा
अपने चेहरे पर,
हो गया मज़बूर मैं भी
समय के साथ चलने,
चढ़ा लिए मुखौटे
अपने चेहरे पर.
तंग आ गया हूँ
बदलते हर पल
बदलते हर पल
एक नया मुखौटा
हर सम्बन्ध, हर रिश्ते को.
रात्रि को जब
टांग देता सभी मुखौटे
खूंटी पर,
दिखाई देता आईने में
एक अज़नबी चेहरा
और ढूँढता अपना अस्तित्व
मुखौटों की भीड़ में.
सोचता हूँ बहा दूँ
सोचता हूँ बहा दूँ
सभी मुखौटे नदी में
और देखूं असली रूप
अपने अस्तित्व का
और प्रतिक्रिया संबंधों की.
...कैलाश शर्मा