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Thursday, August 27, 2015

शब्दों का मौन

अंतस का कोलाहल
रहा अव्यक्त शब्दों में,
कुनमुनाते रहे शब्द
उफ़नते रहे भाव
उबलता रहा आक्रोश
उठाने को ढक्कन 
शब्दों के मौन का।

बहुत आसान है 
फेंक देना शब्दों को 
दूसरों पर आक्रोश में,
हो जाते शब्द
शांत कुछ पल को 
हो जाती संतुष्टि अभिव्यक्ति की।

होने पर शांत तूफ़ान 
डूबने उतराने लगते शब्द
पश्चाताप के दलदल में,
हो जाता और भी कठिन 
निकलना इस दलदल से।


कब होता है शाश्वत
अस्तित्व तूफ़ान का,
बेहतर है सहलाना शब्दों को 
बहलाना रहने को मौन
तूफ़ान के गुज़र जाने तक।

....©कैलाश शर्मा

Wednesday, April 29, 2015

प्रकृति आक्रोश

करते जब खिलवाड़
अस्तित्व से प्रकृति की 
विकृत करते उसका रूप
विकास के नाम पर,
अंतस का आक्रोश
और आँखों के आंसू
बन जाते कभी सैलाब
कभी भूकंप
और बहा ले जाते
जो भी आता राह में.

समझो घुटन को
प्रकृति की चीत्कार को
दबी कंक्रीट के ढेर के नीचे
तरसती एक ताज़ा सांस को,
प्रकृति नहीं तुम्हारी दुश्मन
फटने लगती छाती दर्द से
देख कर दर्द अपनी संतान का.

संभलो, 
यदि संभल सको, 
अब भी.

....कैलाश शर्मा