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Thursday, August 27, 2015

शब्दों का मौन

अंतस का कोलाहल
रहा अव्यक्त शब्दों में,
कुनमुनाते रहे शब्द
उफ़नते रहे भाव
उबलता रहा आक्रोश
उठाने को ढक्कन 
शब्दों के मौन का।

बहुत आसान है 
फेंक देना शब्दों को 
दूसरों पर आक्रोश में,
हो जाते शब्द
शांत कुछ पल को 
हो जाती संतुष्टि अभिव्यक्ति की।

होने पर शांत तूफ़ान 
डूबने उतराने लगते शब्द
पश्चाताप के दलदल में,
हो जाता और भी कठिन 
निकलना इस दलदल से।


कब होता है शाश्वत
अस्तित्व तूफ़ान का,
बेहतर है सहलाना शब्दों को 
बहलाना रहने को मौन
तूफ़ान के गुज़र जाने तक।

....©कैलाश शर्मा

Tuesday, May 14, 2013

किस पिंज़रे में फ़स गया


                                                          (चित्र गूगल से साभार)

एक बार तेरे शहर में आकर जो बस गया,     
ता-उम्र फड़फडाता, किस पिंज़रे में फ़स गया.

नज़रें नहीं मिलाता, कोई यहाँ किसी से,
एक अज़नबी हूँ भीड़ में, यह दर्द डस गया.

रिश्तों की हर गली से गुज़रा मैं शहर में,
स्वारथ का मकडजाल, मुझे और क़स गया.

साये में उनकी ज़ुल्फ़ के ढूंढा किये सुकून,
वह छोड़ हम को धूप में महलों में बस गया.

आती हैं याद मुझ को गलियां वो गाँव की,
वह ख़्वाब अश्क़ बन के आँखों में बस गया.

ऊंचे हैं ख़्वाब सब के, पैरों तले ज़मीं न,
ज़ब भी गिरा ज़मीं पर, दलदल में फ़स गया.

न मिल ही पायी मंज़िल, गुम हो गयी हैं राहें,
इस कशमकश-ए-हयात में, कैसे मैं फ़स गया.

....कैलाश शर्मा